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________________ नैवधीयचरिते अनुवाद-वियोगी वह ( अग्निदेव ) सोम ( चन्द्र ) पर कुपित होता हुआ जैसे सोम ( लताविशेष का रस ) को पी जाता है, कारण यह कि जहाँ शत्रु का नाम तक भी व्यक्त होता हो, उसे कौन-से तेजस्वी . लोग सहन करते हैं ?" // 74 // टिप्पणी-चन्द्रमा दमयन्ती के वियोग में अग्नि को तंग किये जा रहा है। अतः अग्नि को उसपर क्रोध चढ़ना ही ठहरा। फिर तो उसे शत्रु से ही नहीं, प्रत्युत उसके नाम तक से चिढ़ हो रही है। अग्नि को सोम (चन्द्र) ने ही काम बिगाड़ा है, सोम ( लता ) ने नहीं, लेकिन वह सोम ( चन्द्र) का नाम-राशि है, इस लिए क्रोध में उसे पी गया। सोमयाग में सभी देवताओं के साथ चन्द्रमा को भी सामरस की आहुति दी जाती है जिसे चन्द्र पीता है। इस पर कविकल्पना यह है कि मानो अग्नि सोम को शत्रुभूत सोम ( चन्द्र ) का नाम-राशि होने से पीता हो। तेजस्वी लोग शत्रु का नाम तक नहीं सहन कर सकते हैं। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है / पूर्वार्धगत विशेष बात का उत्तराधंगत सामान्य बात से समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास भी है। विद्याधर सोम शब्द में श्लेष भी मानते हैं / 'सोमा' 'सोम' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / शरैरजस्रं कुसुमायुधस्य कदच॑मानस्तरुणि ! त्वदर्थे / अभ्यर्चयद्भिर्विनिवेद्यमानादप्येष मन्ये कुसुमाद्विभेति / / 75 / / अन्वयः-“हे तरुणि ! त्वदर्थ कुसुमायुधस्य शरैः अजस्रम् कदीमानः एषः अभ्यर्चयद्भिः विनिवेद्यमानात् अपि कुसुमात् बिभेति ( इत्यहम् ) मन्ये"। टीका-हे तरुणि! युवते दमयन्ति ! तव अर्थे ( 10 तत्पु० ) त्वदर्ये त्वत्कृते कुसुमायुधस्य कामस्य शरैः बाणैः अजस्त्र र निरन्तरं यथा स्यात्तथा कदर्थ्यमानः पीडयमानः एषः अग्निः अभ्यचयद्भिः पूजयद्भिः पूजकरित्यर्थः विनिवेद्यमानात् समय॑माणात् अपि कुसुमात् एकस्मादेव पुष्पादित्यर्थः बिभेति त्रस्यति इत्यहं मन्ये जाने / पूजकैः निवेद्यमानम् एकमपि पुष्पम् ‘मा भूदेतत्कामशरः' इति मत्वा अग्निः भयभीतो भवतीति भावः // 75 // ___ व्याकरण-कदर्यमान: इसके लिए पीछे श्लोक 69 देखिये / अभ्यर्चद्धिः अभि + / अचं + शतृ तृ० / विनिवेद्यमानात् वि + नि + /विद् + णिच् + शानच् ( कर्मवाच्य ) /
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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