________________ षष्ठः सर्गः बद्धो नलो दुःसहमपि दमयन्तीवियोगं देवानां दूतकर्मनिवहि बाधकं नामन्यत, वियोगं विषह्य दौत्यं चकारेति भावः // 2 // व्याकरण-स्थिर तिष्टतीति/स्था + किरच् / अघोशः अधिकम् ईष्टे इति अधि + /ईश् + कः। और्वशेयः उर्वश्याः अपत्यं पुमान् इति उर्वशी + ढक् / दुर्वार दुः+/+ णिच् + खल् / 'मुनिः कस्मात् ? मननात्' इति यास्कः / पयोधिः पयांसि धीयन्तेऽत्रेति पयस् + /धा + कि ( अधिकरणे ) / औवं ऊरोः भव इति ऊरु + अण् / अन्तरायः अन्तरे मध्ये एति इति अन्तर + / + अच् ( कर्तरि ) / __ अनुवाद-दृढ़-निश्चयी उस राजा नल ने दूत-धर्म ( निभाने ) में दमयन्ती के साथ ( हमेशा के लिए ) वियोग को, यद्यपि वहाँ दुर्वार्य ( असह्य ) था, इस तरह बाधक नहीं समझा जैसे उर्वशी के पुत्र अगस्त्य ऋषि ने समुद्र-पान करने में वाडवानल को बाधक नहीं समझा, यद्यपि वह दुर्वाय ( उससे जल दूषित हो रखा ) था // 2 // टिप्पणो-यद्यपि नल इन्द्र का दूत बनकर अपने हाथ से दमयन्ती को हमेशा के लिए खोने जा रहे थे, तथापि उन्होंने दूत-धर्म में आंच नहीं आने दी और अपने उस बड़े भारी नुकसान की परवाह नहीं की क्योंकि वे वचन दे चुके थे / इसकी तुलना अगस्त्य मुनि से की गई है, अतः उपमा है, जो दुर्वार शब्द में श्लिष्ट है। विद्याधर हेतु अलंकार भी मानते हैं, क्योकि यहाँ अन्तराय और वियोग के रूप में कारण-कार्य का अभेद बताया गया है। ‘रधी' 'रधी' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अगस्त्य द्वारा समुद्र-पान के सम्बन्ध में सर्ग 4 का श्लोक 51 और और्व अथवा वडवानल के सम्बन्ध में श्लोक 48 देखिए। अगस्त्य उर्वशी के पुत्र थे। इस सम्बन्ध में कहते हैं कि एक समय परम रूपवती उर्वशी नामक अप्सरा को देखकर मित्र और वरुण देवों का वीर्य स्खलित हो गया, जिसका कुछ भाग एक कुम्भ ( घड़े ) में और कुछ भाग जल में गिर गया। कुम्भ में गिरे हुए भाग से अगस्त्य का और जल में गिरे हुए भाग से वशिष्ट का जन्म हुआ। अगस्त्य को इसीलिए कुम्भज, कलशयोनि, घटोद्भव, पौवंशेय आदि नामों से पुकारा जाता है। नलप्रणालीमिलदम्बुजाक्षीसंवादपीयूषपिपासवस्ते / तदध्ववीक्षार्थमिवानिमेषा देशस्य तस्याभरणीबभूवुः॥ 3 //