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________________ नंषधीयचरिते प्रति वारंवारं निषेधात्मकवाचः प्रयोगः स्वादृशि त्वत्सदृशे विगहंगा निन्दा अस्ति, भवति त्वयि पूज्ये न उत्तरस्य प्रतिवचनस्य दानात् वितरणात् च अवज्ञा तव देवानाञ्चापि तिरस्कारः भवति / अतः तस्मात् ते तुभ्यम् प्रतिवाचम् उत्तरम् प्रवित्सुः दातुमिच्छः अस्मि // 25 // व्याकरण-परीहासा परि + Jहस् घन् ( भावे ) 'उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्' 6 / 3 / 122 से उपसर्ग के इकार को विकल्प से दीर्घ / प्रगल्भता प्रगल्भस्य भाव इति प्रगल्भ + तल् + टाप् / प्रगल्भः प्रकर्षण गल्भते इति प्र+ गल्भ (धाय ) + अच् ( कर्तरि ) / त्वाशि युष्मत् + दृश् + क्विन् युष्मत् को त्वदादेश और आत्व / विगर्हणा वि + गर्ह + णिच् + युच् , यु को अन्, न को ण + टाप् (स्त्रियाम् ) / प्रदित्सुः प्र+ /दा + सन् + उ 'न लोकाव्यय०' (2 / 3 / 69) से षष्ठीनिषेध / __अनुवाद-"व्यथं का हास-परिहास (हो)-यह ( मेरी ) धृष्टता है; 'ना' 'ना' इस तरह कहते जाना तुम जैसे की भत्र्सना है और आपको उत्तर न देने से ( आपका) अपमान होता है, अतः मैं तुम्हें उत्तर देना चाहती हूँ" // 25 // टिप्पणी-ध्यान रहे कि त्वादृशि' और 'भवति' इन आदर-सूचक शब्दों के प्रयोग में दमयन्ती का यह भाव है कि मैं आपको जो उत्तर दे रही हूँ वह आपके कारण दे रही हूँ, क्योंकि आपके लिए मेरे हृदय में गौरव-भाव है इन्द्रादि के लिए नहीं, उन्हें मैं कोई महत्त्व नहीं देती, जो उन्हें उत्तर दूं। (इस सम्बन्ध में इसी सर्ग का श्लोक 9 भी देखिए। उत्तर देने का कारण बताने से काव्यलिङ्गालदार है / 'भवत्य''भवत्य' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 25 // कथं नु तेपां कृपयापि वागसावसावि मानुष्यकलाञ्छने जने / स्वभावभक्तिप्रवणं प्रतीश्वर: कया न वाचा मुदमुगिरन्ति वा // 26 // अन्वयः-मानुष्यक-लाञ्छने जने कृपया अपि तेषाम् असो वाक् कथम् न असावि ? वा ईश्वराः स्वभाव-भक्ति-प्रवणम् ( जनम् ) प्रति कया वाचा मुदम् उदगिरन्ति ? टीका-मनुष्यस्य भावः मानुष्यकम् मनुष्यत्वम् लान्छनं कलङ्कः (कर्मधा०) यस्य तथाभूते ( ब० वी० ) जने मयि भूलोकप्राणिनि कृपया अपि कृपाकारणात्
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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