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________________ नवमः सर्गः 395 एव विभ्रमः विलासः ( कर्मधा० ) तस्मिन् उन्मुखम् प्रवणम् उत्कमित्यर्थः ( स० तत्पु० ) मुखम् वक्त्रम् आदधे चक्रे कथितवतीत्यर्थः दूतं नलोऽयमिति बुद्ध्वा तेन सह सम्भाषणे आनन्दो जायते इति सविलासं वार्तालापं प्रावर्तयत्, देवेषु उत्तरदानं तु प्रासङ्गिकमेवासीदिति भावः // 24 // व्याकरण-आभरणम् आभ्रियतेऽङ्गम् अनेनेति आ+ /भृ+ ल्युट ( करणे) / स्मितम् /स्मि + क्त (भावे ) / उन्मुखम् उत् ऊवं मुखं यस्येति (ब० वी० ) / अनुवाद-तदनन्तर पतिव्रता-गण की अलौकिक भूषण-भूत वह विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती) चुपके से मुसकाये प्रकट रूप में फिर उस (दूत) के साथ संभाषण के विलास की ओर (निज) मुख को प्रवृत्त कर बैठी ( = बोली ) // 24 // टिप्पणी-पिछले श्लोक में तो दमयन्ती मन ही मन में बोली किन्तु अब प्रकट रूप में बोलने लगती है। जिससे सखियाँ भी सुन सकें लेकिन इसके साथ बोलने का मुख्य प्रयोजन देवताओं को प्रतिसंदेश देना नहीं है प्रत्युत आगन्तुक में नल का आभास होने के कारण उसके साथ बातें करने का स्वाद लेना है / प्रतिसंदेश कहना तो केवल प्रासंगिक और गौण बात है। 'सती' पद से कवि यह ध्वनित कर रहा है कि मनसा वह नल का वरण कर चुकी है; देवताओं के लिए उसके हृदय में कोई स्थान नहीं है, केवल अवज्ञा-मात्र है। यहाँ दमयन्ती पर आभरणत्व का आरोप होने से रूपक है। 'सती सती' तथा 'मुखं मुर्ख' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 24 // वृथापरीहास इति प्रगल्भता न नेति च त्वादृशि वाग्विगर्हणा। भवत्यवज्ञा च भवत्यनुत्तरादतः प्रदित्सुः प्रतिवाचमस्मि ते // 25 // अन्वयः-बृथा परीहासः इति प्रगल्भता, 'न' 'न' इति वाक् च त्वाशि विगर्हणा, भवति अनुत्तर-दानात् च अवज्ञा भवति, अतः ते प्रतिवाचम् प्रदित्सुः अस्मि / टोका-वृथा व्यर्थः परीहासः त्वया अपरिचित-जनेन सह उपहासः इति एषा प्रगल्भता धृष्टता अस्ति, सखीजनः तथाविधेन त्वया सह तथा हास-प्रतिहासरतां मामवलोक्य कीदृशीयं धृष्टेति कथयिष्यतीत्यर्थः; 'न न' इति वाक् , त्वां
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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