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________________ अष्टमः सर्गः 359 टिप्पणी-हमें वरने पर तुम्हारा उपकार हम दो चीजों से ही कर सकते हैं-एक अमृत दान और दूसरा यज्ञ-भाग का दान, किन्तु दोनों तुम्हें प्राप्त हैं। कवि का भाव यह है कि दमयन्ती का अधर सुधा से भी अधिक मधुर, और मुख चन्द्रमा से भी उत्कृष्ट है / अधर पर सुधात्वारोप में रूपक है। चन्द्रमा को जीत लेने में उपमा है, क्योंकि दण्डी ने जीतना, टक्कर लेना आदि लाक्षणिक प्रयोगों का सादृश्य में पर्यवसान मान रखा है, अन्यथा मुख में चन्द्र की अपेक्षा आधिक्य बताने में हम व्यतिरेक कहेंगे। विद्याधर अतिशयोक्ति बता रहे हैं, जिसे हम नहीं समझे / 'दास्य' 'मास्य' में पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास है जब कि विद्याधर छेक बता रहे हैं / अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रिये ! वणीष्वामरभावमस्मदिति त्रपाकृद्वचनं न कि नः / त्वत्पादपद्मे शरणं प्रविश्य स्वयं वयं येन जिजोविषामः / / 103 / / अन्वयः- "हे प्रिये ! अस्मत् अमरभावम् वृणीष्व"-इति नः वचनम् त्रपाकृत् न ( अस्ति ) किम् ? येन त्वत्पाद-पद्म शरणम् प्रविश्य वयम् स्वयम् जिजीविषामः / " ____टोका-'हे प्रिये प्रियतमे दमयन्ति / अस्मत् अस्मत्सकाशात् अमरस्य भावम् अमरत्वम् (10 तत्पु० ) वृणीष्व याचस्व' इति नः अस्माकम् वधनम् कथनम् त्रपां लज्जां करोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु०) लज्जाजनकम् न अस्ति किम् ? अपि त्वस्त्येवेति काकुः / येन कारणेन तव पादौ चरणी (10 तत्पु० ) एव पद्म कमलद्वयम् ( कर्मधा० ) शरणम् रक्षितारम् ('शरणं गृह-रक्षित्रोः' इत्यमरः) प्रविश्य गत्वा वयम् स्वयम् आत्मनैव जिजीविषामः जीवितुमिच्छामः / त्वत्पादसेवया जीवितुमिच्छताम् अस्माकम् त्वत्कृतेऽमरत्वप्रदानकथनम् सुतराम् उपहासास्पदमिति भावः // 103 // __व्याकरण-प्रिया प्रीणातीति/प्री+ क + टाप् / अमरः नियते इति मृ + अच् ( कर्तरि ) मरः, न मरः इत्यमरः / त्रपाकृत् त्रपा + /कृ + क्विप् ( कर्तरि ) तुगागम। शरणम् श्रियते इति /श्रि+ ल्युट ( कर्मणि ) / जिजीविषामः /जीव + सन् + लट् / अनुवाद-"प्रिये, हम से अमरत्व माँगो"—यह हमारा कथन लज्जाजनक नहीं है क्या, जिससे तुम्हारे चरणकमलों की शरण में आकर हम स्वयं जीवित रहना चाह रहे हैं ?" // 103 //
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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