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________________ षष्ठः सर्गः लोलाया: क्रीडायाः कमलम् (10 तत्पु० ) अथवा लोलार्थ कमलम् ( च० तत्पु० ) विलेखितुम् चित्रे अङ्कयितुमिति यावत् अशाकि शक्तम्, पाणिम् तस्याः करं तु विलेखितुम् न अशाकीति पूर्वतोऽनुवृत्तम्, कमलापेक्षया करस्य अतिसुन्दरत्वात्, अतएव चित्रकर्या सख्या विलेखितुमशक्यत्वात्; कर्णयोः उत्पलम् इन्दीवरम् (10 तत्पु० ) अथवा कर्णार्थम् उत्पलम ( च० तत्पु० ) विलेखितुम अपारि पारितम्, अक्षि नयनं तु विलेखितुम् नैव अपारीति पूर्वतोऽनुवृत्तम् अक्षणः उत्पलापेक्षया अतिसुन्दरत्वात् / चित्रकलायाम् अतिनिपुणापि सखी भैम्याः करम् अक्षि च चित्रयितुं नाशक्नोत्सर्वोपमानातीतत्व दिति भावः // 64 // . व्याकरण-भीमभूः भवत्यस्मादिति भू + क्विप् ( अपादानार्थे ) / लिपीषु लिपि + ङीष् ( बिकल्प से ) ०भृता--भृन + क्विप ( कर्तरि ) / अशाकि शक् + लुङ् ( भाववाच्य ) शिक् के योग में ही विलेखितुम् में तुमुन् / अपारि - पार् + लुङ् (भाववाच्य ) / अनुवाद -- जहाँ चित्रकला में अत्यन्त प्रसिद्धि रखे हुए भी ( एक ) सखी दमयन्ती ( के हाथ ) का लीला कमल का (ही) चित्र खींच सकी, हाथ का. नहीं; कर्णोत्पल का (ही) चित्र खींच सकी आँख का नहीं / / 64 // टिप्पणी-चित्रपट या दीवार पर दमयन्ती का चित्र बनाती हुई उसकी कोई सखी उसका लीला कमल और कर्णोत्पल ही चित्रित कर सको, हाथ और आँख नहीं. क्योंकि वे दोनों सोंदर्य में चित्रकरी की कला की पकड़ से बाहर थे। कैसे चित्रित करती? विद्याधर यहाँ प्रतीपालंकार मान रहे हैं, क्योंकि हाथ और आँख के आगे लीलाकमल और कर्णोत्पल का यहाँ अपमान किया जा रहा . है, किन्तु हमारे विचार से यहाँ लीलाकमल और कर्णोत्पल की अपेक्षा कर और आँख में अतिशय बताने में व्यतिरेक बन रहा है। हाँ उक्त दोनों अलंकारों का सन्देह-संकर हो सकता हैं। ‘ख्याऽति' 'ख्याति' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भैमीमुपावीणयदेत्य यत्र कलिप्रियस्य प्रियशिष्यवर्गः / गन्धर्ववध्वः स्वरमध्वरीणतत्कण्ठनालकधुरीणबीणः // 65 / अन्वयः-यत्र कलिप्रियस्य प्रियशिष्यवर्गः गन्धर्ववध्वः स्वर''वीण: ( सन् ) एत्य भैमीम् उपावीणयत् /
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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