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________________ भष्टमः सर्गः (त. तत्पू० ) क्रमशः स्मरस्य कामस्य कीर्त्या यशसा असितानि सितानि कृतानीति सितीकृतानि श्वेतीकृतानि इवेति संभावनायाम् तस्य कामस्य दोषोः भूजयोः प्रतापैः प्रकृष्टतापैः तेजोभिरित्यर्थः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) तापितानि तापमवापितानि इवेति संभावनायाम् अङ्गानि अवयवान् धत्त धारयति / यमस्य अङ्गानि कामयशसा श्वेतीकृतानि, कामप्रतापेन च जर्जरितानीव प्रतीयन्ते इति भावः // 79 // व्याकरण-चण्ड चण्डते इति /चण्ड् + अच् ( कर्तरि ) / ज्वरः /ज्वर + घन ( भावे ) / जर्जर जर्जतीति /जर्ज + अर / कीतिः कीर्यते इति /क + क्ति, ऋ को इर् / सितीकृतानि सित + च्चि, ईत्व /कृ + क्त। प्रतापी प्र+ Vतप् + घञ् ( भावे ) / __अनुवाद-''वह ( यम ) आपके वियोग से पाण्डु-वर्ण ( तथा ) तीव्र ज्वर से जीर्णशीर्ण बने हुए जिन अङ्गों को रख रहा है वे ऐसे लग रहे हैं मानो काम के यश से श्वेत कर दिये गये हों और उसकी भुजाओं के प्रताप से फूक दिये गये हों" // 79 // टिप्पणी-वैसे तो यम के अंग दमयन्ती के वियोग से श्वेत-पीत हो गये थे और काम-ज्वर से टूट-फूट गये थे, किन्तु कवि की कल्पना यह है कि काम ने यम तक को भी धर-दबाया है, इसलिए अंगों की सफेदी मानो सर्व-विजयी काम के यश की हो, इसी तरह यम के अङ्गों की जीर्ण-शीर्णता मानो काम के भुज-दण्डों के प्रताप से हुई हो। इसलिए यहाँ दो उत्प्रेक्षायें हैं, जिनके साथ यथाक्रम सम्बन्ध होने से यथासंख्यालंकार का संकर है। शब्दालंकारों में 'तानि' 'तानि' में यमक, 'तापैः' 'तापि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / यस्तन्वि ! भर्ता घुसृणेन सायं दिशः समालम्भनकौतुकिन्याः / तदा स चेतः प्रजिघाय तुभ्यं यदा गतो नैति निवृत्य पान्थः / / 80 / / हे तन्वि ! यः सायम् घुसृणेन समालम्भन-कौतुकिन्याः दिशः भर्ता (अस्ति), स तदा गत पान्थः निवृत्य न एति / टीका-हेतन्वि ! कृशाङ्गि ! यः देवः सायं सायंसमये घुसृणेन कुङ्कुमेन समालम्भनम् विलेपनम् ( 'समालम्भो विलेपनम्' इत्यमरः ) तस्मिन् कौतुकिन्याः कुतूहलिन्याः ( स० तत्पु०) दिश: दिशायाः प्रतीच्याः इत्यर्थः भर्ता स्वामी वरुणः
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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