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________________ नेषधीयचरिते की, जलते रहते हुए भी किसलय-रूपी हाथों से सेवा करता रहता है / जो सदा जिसकी आशा ( अभिलाषा, दिशा) पर टिका रहता है, वह विपत्ति में भी उसकी सेवा नहीं छोड़ता" // 78 // ___ टिप्पणी-यम दक्षिण दिशा का स्वामी है। मलय-पर्वत भी दक्षिण में होता है। दमयन्ती ! तुम्हारे खातिर कामानल से जलते हुए यम को मलयाचल चन्दनवृक्षों के पत्ते दे रहा है, जिनकी शय्या पर यम शान्तिप्राप्ति हेतु लेटा रहता है, किन्तु उसके शरीर के अत्यधिक ताप के कारण बिछे हुए पत्ते भी भुनकर पापड़ बनते रहते हैं। यहाँ पत्तों पर हस्तत्वारोप होने से रूपक है। हस्तों के लिए चेतन प्राणी अपेक्षित है, इसलिए मलय पर भत्यत्व का आरोप होना चाहिए था जो यहाँ गम्य ही रह रहा है, कत्थ्य नहीं हुआ, अतः रूपक 'एकदेशविवर्ती ही रहा, समस्तवस्तु-विषयक नहीं बन सक रहा है। इस तरह रूपक से हो काम चल जाने से हम यहाँ समासोक्ति नहीं मानेंगे। भाव यह निकला कि मलय-रूपी भृत्य अपने पल्लव-रूपी हाथों से अपने प्रभु यम के अंगों को दबाता जा रहा है। भले ही तपे शरीर-स्पर्श से इसके हाथ भी क्यों न तपते जावें, इस विशेष बात का समर्थन उत्तरार्ध-प्रतिपादित सामान्य बात कर रही है अर्थात् जिसको जिस व्यक्ति से कुछ मिलने की आशा लगी रहती है वह विपत्ति में भी उसकी सेवा करता रहता है, उसे नहीं छोड़ता। यहाँ कवि आशा शब्द में श्लेष रखे हुए है अर्थात् जो जिस आशा-दिशा (देश) का प्रभु है संकट में पड़े उसकी सेवा लोग स्वयं को भी संकट में डाल कर करते ही हैं। इस तरह यह श्लेष-गर्भित अर्थान्तरन्यास के साथ रूपक को संसृष्टि है। 'मानैः' 'मन्म' में छेक, 'सदा यदा' में पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / स्मरस्य कीत्यैव सितीकृतानि तद्दोःप्रतापैरिव तापितानि / अङ्गानि धत्ते स भवद्वियोगात्पाण्डूनि चण्डज्वरजर्जराणि // 79 // अन्वयः-स भवद्-वियोगात् पाण्डूनि चण्डज्वर-जर्जराणि स्मरस्य कीर्त्या सितीकृतानि इव तद्दोःप्रतापैः तापितानि इव अङ्गानि धत्ते / टीका–स यमः भवत्याः तव वियोगात् विरहात् (10 तत्पु० ) पाण्डूनि पाण्डुराणि चण्डः तीव्रः यः ज्वरः तापः ( कर्मधा० ) तेन जर्जराणि जीर्णशीर्णानि
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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