________________ नवमः सर्गः 527 कुछ बोल गई है / अब बोलना बेकार है" इसी बात को मन में लाकर सखी हंसी भी है। विद्याधर 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः' कह रहे हैं / 'प्रिय' प्रिया' और 'धुना' 'नना' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अपवार्य-कवि ने यह नाटक का एक पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त किया है। 'अपवार्य अथवा अपवारितकेन नाटक में एक 'नियत-श्राव्य' का भेद है अर्थात् जो बात सबके सुनने की न होकर किसी विशेष व्यक्ति के सुनने की होती है। इसमें-जिस एक ही व्यक्ति को बात सुनानी होती है उसे एक तरफ ले जाकर अथवा बोलते समय मुख के बगल में हथेली खड़ी करके, या फिर कानाफूसी करके कही जाती है, लेकिन दमयन्ती ने उत्तर देने में ऐसा कुछ नहीं किया। लाज से गड़ी रही // 142 // पदातिथेयाँल्लिखितस्य ते स्वयं वितन्वती लोचननिर्झरानियम् / जगाद यां सैव मुखान्मम त्वया प्रसूनबाणोपनिषन्निशम्यताम् // 143 // अन्वयः-(हे नल ! ) इयम् लोचन-निझरान् स्वयम् लिखितस्य ते पदातिथेयान् वितन्वती याम् ( पञ्चबाणोपनिषदं ) जगाद, सा एव पञ्चबाणोप'निषद् मम मुखात् त्वया निशम्यताम् / टीका-(हे नल ! ) इयम् भैमी लोचनयोः नयनयोः निर्झरान् निर्झरवत् अश्रुप्रवाहान् (ष० तत्पु० ) स्वयम आत्मना लिखितस्य चित्रितस्य ते तव पदयोः चरणयोः आतिथेयान् अतिथिषु साधून ( स० तत्पु० ) आतिथ्य-रूपेण पदोदकरूपानित्यर्थः वितन्वती प्रकुर्वती याम् पञ्चबाणस्य पञ्च बाणा यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) कामस्येत्यर्थः उपनिषदम् रहस्यम् जगाद तवात्रागमनात् पूर्वमकथयत्, सा पञ्चबाणोपनिषद् एव मम मुखात् वक्त्रात् त्वया निशम्यताम् श्रूयताम् स्वयं पटे भित्तो वा तव चित्रं निर्माय त्वद्-वियोगेऽणि धारारूपेण प्रवाहयन्ती एषा चित्रात्मक-त्वदग्रे यां रहस्यात्मिकी स्वहृदयवेदनां व्यनक्तिस्म, तामेवाहं तवाने यथातथं निवेदयामीति भावः / / 143 / / व्याकरण-आतिथेयान् अतिथिषु साधुः इति अतिथि + ढन् / उपनिषद् उप = समीपे (गुरोः) निषद्य = स्थित्वा ज्ञायते इति उप + नि+सद् + क्विप्, स को ष। अनुवाद-"( हे नल ! ) यह ( तुम्हारी प्रेयसी) स्वयं ( अपने हाथ से) खोंचे तुम्हारे चित्र के चरणों का आँखों के झरनों द्वारा आतिथ्य करती हुई