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________________ 528 नैषधीयचरिते जिस ( काम-रहस्य ) को उघाड़ती रहती थी, वही ( काम-रहस्य ) मेरे मुख से सुनो" // 143 // टिप्पणी-भारतीय संस्कृति के अनुसार अतिथि का पहले पादोदक से आतिथ्य करना होता है। चित्ररूप में घर आये तुम्हारे चरणों को वह अश्रुजल रूप में पादोदक देती रहती थी अर्थात् तुम्हारे चित्र के आगे वियोग-व्यथा के कारण इसकी आँखों से झरना-जैसा अश्रु-प्रवाह होता रहता था। तब यह जो कहती रहती थी, उसे ज्यों की त्यों मैं दोहरा देती हूँ। यहाँ अश्रु-प्रवाहों का निझरों के साथ अभेदाध्यवसाय होने से अतिशयोक्ति है। शब्दालंकार वृत्त्य. नुप्रास है // 143 // असंशयं स त्वयि हंस एव मां शशंस न त्वद्विरहाप्तसंशयाम् / क्व चन्द्रवंशस्य वतंस! मद्वधान्नृशंसता संभविनी भवादृशे // 144 / / अन्वयः-हे चन्द्रवंशस्य वतंस ! स एव हंसः माम् त्वद्विरहाप्तसंशयाम् त्वयि असंशयम् न शशंस / भवादृशे मद्वधात् नृशंसता क्व संभविनी ? टीका-हे चन्द्रस्य चन्द्रमसः वंशस्य कुलस्य (10 तत्पु० ) वतंसः ! अवतंस: भूषणं नलः इत्यर्थः स हंसः सुवर्णहंसः एव निश्चयेन माम दमयन्तीम् तव विरहः वियोगः (10 तत्पु० ) तेन आप्तः प्राप्तः संशयः जीवनसन्देहः ( तृ. तत्पु० ) यया तथाभूताम् (ब० वी०) सतीम् त्वयि त्वदने असंशयम् न संशयो यस्मिन् कमणि यथास्यात्तथा ( ब० वी० ) न शशंस कथयामास, अहं त्वद्वियोगकारणात् प्राणसन्देहे स्थिताऽस्मीति हंसेनैव त्वं न सूचितोऽसीति भावः / (अन्यथा) भवादृशे भवत्सदृशे सुकुलोत्पन्ने, सौन्दर्यादिगुणवति वीर-पुरुषे मम वधः हिंसा तस्मात् (10 तत्पु० ) नृशंसता हिंसकता, क्रूरतेत्यर्थः ( 'नृशंसो घातुकः क्रूरः' इत्यमरः ) क्व कुत्र संभविनो संभाव्या न क्वापीति काकुः / अत्र हंसस्यवापराधः न तवेति भावः // 144 // व्याकरण-वतंसः भागुरि के अनुसार विकल्प से अवतंस शब्द में अव उपसर्ग के अ का लोप हो रखा है। अवतंस्यते (अलंक्रियते) अनेनेति अव + तंस +घञ् ( करणे ) / संशयः सम् + शी + अच् ( भावे ) / भवादृशे भवत् + Wश + कन, आत्व / नृशंसता शंसति ( हन्ति, ) इति /शंस + अच् (कर्तरि), नृणां शंसः तस्य भावः तत्ता। संभविनी संभवोऽस्या अस्तीति संभव + इन (मतुबर्थ ) + ङीप् /
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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