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________________ अष्टमः सगः 'वाणी' में ( बवयोरभेदात् ) यमक 'इत्थं' 'मधूत्थं' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / कामदेव के पांच बाणों के सम्बन्ध में पीछे श्लोक 4 देखिये / अमज्जदाकण्ठमसौ सुधासु प्रियं प्रियाया वचनं निपीय / द्विषन्मुखेऽपि स्वदते स्तुतिर्या तन्मिष्टता नेष्टमुखे त्वमेया // 51 / / अन्वयः-असौ प्रियायाः प्रियम् वचनम् निशम्य सुधासु आकण्ठम् अम. ज्जत, या स्तुतिः द्विषन्मुखे अपि स्वदते तन्मिष्टता इष्ट-मुखे तु अमेया न (किम् ) ? टोका-असौ नलः प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः प्रियम् मधुरम् वचनम् वाणीम् निशम्य श्रुत्वा सुधासु अमृतेषु कण्ठम् मर्यादीकृत्येति आकण्ठम् कण्ठपर्यन्तम् ( अव्ययी. ) अमज्जत मग्नोऽभवत् / या स्तुतिः प्रशंसा द्विषतः शत्रोः मुखे वक्त्रे ( 10 तत्पु० ) अपि स्वदते रोचते तस्याः मिष्टता माधुरी इष्टस्य प्रियजनस्य मुखे वक्त्रे ( 10 तत्पु० ) तु पुन: अमेया मातुमशक्या अपरिमितेति यावत् न ( किम् ) ? अपि तु अमेया एवेति काकुः। आत्मस्तुतिः शत्रुणापि क्रियमाणा रुचिकरी भवति प्रियजनकृता तु सा कस्मानापरिमितम् आनन्दं जनयिष्यतीति भावः / / 51 // व्याकरण-प्रियम् प्रीणातीति /प्री + क / स्तुतिः /स्तु + क्तिन् (मावे) / द्विषत् / द्विष् + शतृ / अमेया न + /मा + यत् / अनुवाद-वह ( नल ) प्रिया के वचन सुनकर अमृत में गले-गले तक डूब गये / जो प्रशंसा शत्रु के भी मुख में अच्छी लगती है, उसकी मधुरता प्रिय जन के मुख में तो अपरिमित क्यों नहीं होगी ? // 51 / / टिप्पणी-वैसे तो शत्रु की अन्य सभी बातें हमें बुरी लगती है, किन्तु यदि वह स्तुति करने लगे तो वह अच्छी ही लगती है-यह एक सामान्य मनोवैज्ञानिक तथ्य है। कालिदास भी यह बात मानते हैं-स्तोत्रं कस्य न तोपकम् ?' / प्रिया द्वारा की गई आनो स्तुति सुनकर नल के हृदय में आनन्द का सागर उद्वेलित हो उठा-पूर्वार्ध में कही इस विशेष बात का उत्तरार्ध में कही सामान्य बात द्वारा समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलंकार है / 'द्विषन्मुखेऽपि' में अपि शब्द द्वारा कैमुतिक न्याय से और की तो बात ही क्या ?' इस अर्थ की आपत्ति से अापत्ति अलंकार भी है। मल्लिनाथ अमृत में डूब जाने का कारण
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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