SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 432 नैषधीयचरिते व्याकरण-भास्/भास् + क्विप (भावे)। विष विष् + किम् (भावे)। तेन सह शब्द के प्रयोग के विना भी यहाँ 'वृद्धो यूना (1-2-65)' के प्रमाण से सहार्थ में तृतीया है। विच्छेवः वि + /छिद् + घन् ( भावे ) / उद्भवः उत् + Vभू + घञ् (भावे ) / धृत/धु + क्त ( कर्मणि ) / निमेषवत् निमेष इवेति निमेष + वत् ( सादृश्यार्थं ) / निमेष: नि +/मिष + घ ( भावे ) / नयस्व कर्तृगत क्रियाफल में आत्मने / __ अनुवाद-"(हे दमयन्ती!) अगस्त्य नक्षत्र के प्रकाश से निर्मल कान्ति' वाली बनी ( दक्षिण ) दिशा में उन ( यम ) के साथ विना थोड़ा सा भी व्यव. धान किये कामुक क्रीड़ाओं द्वारा, मृत्युभय से रहित हो अनन्त काल को क्षण को तरह बिताओ" // 57 // __टिप्पणी-दक्षिण दिशा यम की होती है। मलयज-सौरभ और शीतल पवन के कारण वह अन्य दिशाओं की अपेक्षा अधिक उपभोग-योग्य मानी जाती है, अतः वहाँ का उपभोग-सुख यम को छोड़ अन्य देवता के साथ दुर्लभ है। निमेषवत् में उपमा है / “दिशि'. 'त्विषि' में (शषयोरभेदात् ) पदान्तगत अन्त्यानुप्रास है / / 57 // शिरीषमृद्वी वरुणं किमोहसे पयःप्रकृत्या मृदुवर्गवासवम् / विहाय सर्वान्वृणुते स्म किं न सा निशापि शीतांशुमनेन हेतुना / / 58 // अन्वयः-(अथवा ) शिरीष-मृद्वी ( त्वम् ) पयःप्रकृत्या मृदुवर्गवासवम् ईहसे किम् ? सा निशा अपि अनेन हेतुना सर्वान् विहाय शीतांशुम् न वृणुते स्म किम् ? टीका-(अथवा ) शिरीषः कपीतनः मृदुपुष्पविशेष इति यावत् तद्वत् मृद्वी कोमलाङ्गी ( उपमान तत्पु० ) त्वम् पयसः जलस्य प्रकृत्या स्वभावेन (10 तत्सु० ) जलत्वेनेत्यर्थः मृदूनां कोमलपदार्थानाम् यो वर्गः समूहः तस्य वासवम् इन्द्रम् श्रेष्ठं वरुणमित्यर्थः (10 तत्पु०) ईहसे इच्छसि किम् ? त्वम् मृद्वी, वरुणोऽपि जलरूपत्वेन मृदुः इति समानस्वभावत्वात् त्वं वरुणे अनुरज्यसे इति संभावयामीति भावः / सा अतिमृद्वी शीता च निशा रात्रि अपि अनेन हेतुना कारणेन सर्वान निखिलान् देवान् विहाय त्यक्त्वा शीता शीतला: अंशवः किरणाः (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी०) चन्द्रमित्यर्थः
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy