________________ परिशिष्टम् -2 553 २३-द्यौर्न काचिदथवास्ति निरूढा सैव सा चलति यत्र हि चित्तम् / / 5 / 57 // २४-द्विषन्मुखेपि स्वदतेस्तुतियाँ तन्मिष्टता नेष्टमुखे त्वमेया / / 8151 // २५-धनिनामितरः सतां पुनगुणवत्संनिधिरेव सन्निधिः // 2 // 53 // २६-न मोघसंकल्पधराः किलामराः // 9 / 145 // २७-न वस्तु दैवस्वरसाद्विनश्वरं सुरेश्वरोऽपि प्रतिकतुंमीश्वरः // 9 / 126 // २८-नामापि जागति हि यत्र शत्रोस्तेजस्विनस्तं कतमे सहन्ते // 874 / / २९-नास्ति जन्य-जनकव्यतिभेदः // 5 / 94 // ३०-पुण्ये मनः कस्य मुनेरपि स्यात् / / 8 / 17 // ३१-पूर्वपुण्यविभवव्ययलब्धाः श्रीभरा विपद एव विमृष्टाः / पात्रपाणिकमलार्पणमासां तासु शान्तिकविधिविधिदृष्टः // 5 / 17 // ३२-प्रापितेन चटुकाकुविडम्बं लम्भितेन बहुयाचनलज्जाम् / अर्थिना यदघमर्जति दाता तन्न लुम्पति विलम्ब्य ददानः // 5 / 84 // ३३-प्रियमन सुकृतां हि स्वस्पृहाया विलम्बः // 3 // 134 // ३४-बिम्बानुबिम्बी हि विहाय धातुन जातु दृष्टातिसरूपसृष्टिः // 8 / 46 // ३५–ब्रुवते हि फलेन साधवो नतु कण्ठेन निजोपयोगिताम् / / 2 / 48 / / ३६-भवत्युपायं प्रति हि प्रवृत्तावपेयमाधुर्यमधयंसजि // 693 // ३७-भिन्नस्पृहाणां प्रति चार्थमर्थ द्विष्टत्वमिष्टत्वमपव्यवस्थम् // 6 / 106 // ३८-मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता // 98 // ३६-मुग्धेषु कः सत्य-मृषाविवेकः // 8 / 18 // ४०-यत्रान्धकारः किल चेतसोऽपि जिह्मेतरब्रह्म तदप्यवाप्यम् // 3 // 63 // ४१-याचमानजनमानसवृत्तेः पूरणाय वत जन्म न यस्य / तेन भूमिरतिभारवतीयं न मनं गिरिभिनं समुद्रः // 5 / 88 // ४२-यावदहकरणं किल साधोः प्रत्यवाय-धुतये न गुणाय // 59 // ४३-लक्ष्ये हि बालाहृदि लोलशीले दरापराद्धयुरपिस्मरः स्यात् // 27 // ४४-लधी लघावेव पुरः परे बुधविधेयमुत्तेजनमात्मतेजसः // 8 / 152 // 45- लोक एव परलोकमुपेता ही विहाय निधने धनमेकः / इत्यमुं खलु तदस्य निनीषत्यथिबन्धुरुदयद्दयचित्तः // 5 / 91 // ४६–वमं कर्षतु पुरः परमेकस्तद्गतानुगतिको न महाघः // 5 // 55 // ४७-विहितं धर्मधननिवहणं विशिष्य विश्वासजुषां द्विषामपि // 1 / 131 //