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________________ षष्ठः सर्गः 55 अनुवाद-( सत्य ) स्पर्श द्वारा हुए महान् आनन्द के कारण धारण की हुई सत्य-बुद्धि से ( फिर आलिंगनों में ) प्रवृत्त हो ( उनके ) मिथ्यात्व से ( सत्य-बुद्धि को) बाधित पाये हुए मार्ग में ( तीसरी बार ) सत्य रूप में फिर एक-दूसरे का स्पर्श करते हुए भ्रम-ग्रस्त उन दोनों का उस पर भी सत्यत्व का विश्वास नहीं होता था / / 53 // टिप्पणी-यहाँ कवि युगल के मध्य तीन तरह की स्थिति यहाँ रख रहा है -- पहली स्थिति में उन दोनों का परस्पर-स्पर्श सत्य रहता है जिससे वे आनन्द मग्न हो जाते हैं। पर्श में उन्हें सत्यत्व-बुद्धि हो जाती है। उसी सत्यत्व बुद्धि को लेकर वे दूसरी स्थिति में फिर कई बार परस्पर आलिगन करने लगते है, किन्तु उनमें वास्तविक स्पर्श न पाकर उनकी सत्यत्व बुद्धि जाती रहती है और उसे वे भ्रम ही समझने लगते हैं। किन्तु तीसरी स्थिति यह आती है कि कभी वे मार्ग में सत्य रूप से एक दूसरे का स्पर्श कर लेते हैं, तो दूसरी स्थिति की तरह उसे वे भ्रम ही समझते हैं, सत्य नहीं। दूसरी स्थिति में वे गलती जो खा बैठे थे, अतः सत्यत्व का विश्वास उन्हें कैसे होता ? विद्याधर के अनुसार सत्य पर श्रद्धा का कारण होने पर भी श्रद्धा रूप कार्य न होने से विशेषोक्ति अलंकार है / सत्य मत्या में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सर्वत्र संवाद्यमबाधमानौ रूपश्रियातिथ्यकरं परं तो। न शेकतुः केलिरसाद्विरन्तुमलीकमालोक्य परस्परं तु / / 54 / / अन्वयः-तौ रूप-श्रिया सर्वत्र संवाद्यम् ( अत एव ) परम् आतिथ्यकरम् अलीकम् परस्परम् तु आलोक्य अबाधमानी ( सन्तौ ) केलि-रसात् विरन्तुम् न शेकतुः। टीका-तौ नल-दमयन्त्यौ रूपस्य सौन्दर्यस्य श्रिया सम्पदा सौन्दर्यातिशयेनेत्यर्थः / 10 तत्पु० ) सर्वत्र सर्वाङ्गेषु अथवा सर्वथा संवाद्यम् संवादयोग्यम् अनुरूपमिति यावत् अतएव परम् अत्यन्तं यथा स्यात्तथा आतिथ्यम् सत्कारम् सुखमितियावत् करोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) अलीकम् मिथ्या भ्रमोत्थापितमित्यर्थः परस्परम् अन्योन्यम् ( कर्मभूतम् ) तु पुन: आलोक्य दृष्ट्वा अबाधमानौ मिथ्येति न मन्यमानी सत्यत्वेन गृह्णानाविति यावत् सन्तौ केल्याः क्रीडाया रसान् प्रीतेः विरन्तुम् विरामं कर्तुम् न शेकतुः नाशक्नुवाताम् / भ्रमे मिथ्यात्मको अपितौ परस्परं क्रीडानन्दमनुभवितुमैच्छतामिति भावः // 54 //
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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