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________________ 370 नैषधीयचरिते विषय में संकेतित है ?—यह बात (पूछनी ) बेकार है। हम दोनों के मध्य प्रत्यक्ष में व्यवहार करने हेतु वस्तुतः 'तुम' और 'मैं' ये दो शब्द पर्याप्त हैं" // 9 // टिप्पणी-लोकव्यवहार सञ्चालनार्थ किसी व्यक्ति, स्थान या वस्तुके साथ 'अस्मात् पदादयमों बोद्धव्यः' इस तरह शब्द का वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध मानना पड़ता है, जिसे साहित्य में 'संकेत' नाम से पुकारा जाता है। इसी को लोक में नाम-करण कहते हैं। दोनों के मध्य परोक्षस्थल में नाम के बिना काम नहीं चलता लेकिन प्रत्यक्षस्थल में तो 'तुम-मैं' से व्यवहार हो जाता है। इस तर्क के आधार पर नल दमयन्ती के निज नाम बताने के आग्रह का खण्डन कर देता है। विद्याधर के अनुसार 'अत्र काव्यलिङ्गमलंकारः' / 'केति' 'केति' में यमक, 'युष्मदस्मदी' में (षसयोरभेदात् ) छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास यदि स्वभावान्मम नोज्ज्वलं कुलं ततस्तदुद्भावनमौचिती कुतः / अथावदातं तदहो विडम्बना तथा कथा प्रेष्यतयोपसे दुषः // 10 // अन्वयः-मम कुलम् स्वभावात् यदि उज्ज्वलम् न ( स्यात् ), ततः तदुद्भावनम् कुतः औचिती? अथ अवदातम्, तत् प्रेष्यतया उपसेदुषः ( मम ) तथा कथा विडम्बना अहो! टीका-मम कुलम् वंशः स्वभावात् निसर्गात् यदि उज्ज्वलम् निर्मलम् न स्यात् ततः तर्हि तस्य कुलस्य उद्धावनम् प्रकटनम् कथनमित्यर्थः कुतः कस्मात् औचिती औचित्यम् सकलङ्ककुलप्रख्यापनं नोचितमिति भावः / अथ यदि कुलम् अवदातम् उज्ज्वलमस्ति, तत् तहि प्रेष्यतया दूतत्वेन उपसेदुषः तव समीपमा. गतस्य मम तथा तेन प्रकारेण कथा तस्य कथनम् विडम्बना उपहासः इत्यही खेदे, उच्चकुलस्य जनस्य परदूतीभवनम् उपहासास्पदमेवेति भावः // व्याकरण- उज्ज्वलम् उत् ( ऊर्ध्वम् ) ज्वलतीति उत् + /ज्वल + अच् ( कर्तरि ) उद्धावनम् उत् + /भू + णिच् + ल्युट ( भावे ) / औचिती उचितस्य भाव इति उचित + ध्यन + डीष य लोप / अवदातम् अव+/दै ( शोधने ) क्त ( कर्मणि अथवा कर्तरि ) / प्रेष्यताम् प्रेष्यस्य भाव इति प्रेष्य + तल् + टाप / प्रेष्य-प्रेषयितुं योग्य इति प्र + /इष् + ण्यत् / उपसेदुषः
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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