SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तमः सर्गः 209 यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) 'कुम्भकारः' अजनि जातः / कुम्भेन दमयन्तीकुचाभ्यां सह या स्पर्धा कृता, तत्कारणादेव कुलालः मणिकाद्यनेकमृद्भाण्डनिर्माताऽपि सत् कुम्भकार एवोच्यते, न तु मणिकादिकार इति भावः // 74 // व्याकरण-०स्पर्धा स्पधितुं शीलमस्येति स्पधं + णिन् / निदर्शनम् निदर्यते साम्यमस्मिन्निति नि + दृश + णिच् + ल्युट ( अधिकरणे ) / ०कारी कर्तुशीलमस्येति /कृ + णिन् / कुम्भकारः कुम्भं करोतीति कुम्भ + /कृ + अण् ( कर्मणि ) / अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) के कुचों से होड़ करने के कारण प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ घट शास्त्रों में दृष्टान्त बना हुआ है एवं मटके आदि का ( भी) निर्माता होता हुआ ( कुलाल ) उस दमयन्ती के कुचों से होड़ करने वाले घट ( का निर्माण ) शिल्प के कारण कुम्भकार नाम से (ही) प्रसिद्ध हुआ है / / 75 // टिप्पणी-संस्कृत कवि-जगत् में कुचों की तुलना के लिए घट, कुम्भ अथवा कलश काम में लाया जाता है। दमयन्ती के कुच के साथ स्पर्धा के कारण धट इतना प्रसिद्ध हो बैठा है कि न्यायशास्त्र में जिस किसी भी बात को सिद्ध करने में दृष्टान्त घट का ही दिया जाता है ( यथा घटः ) और कुम्हार भी यद्यपि मटके, कुण्डे, सुराही आदि बनाता है, तथापि दमयन्ती के कुचों से स्पर्धा करने वाले कुम्भ (घट ) के निर्माण के कारण ही कुम्भकार कहा जाता है न कि मणिककार आदि / किसी बड़े के साथ संपर्क से तो लोग प्रसिद्ध होते ही हैं, किन्तु बड़े के साथ स्पर्धा अथवा शत्रुता से भी प्रसिद्धि प्राप्त हो जाया करती है जैसे भारवि ने भी कहा है--'वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः'। इससे दमयन्ती के कुच घट-जैसे बड़े हैं. यह उपमा-ध्वनि निकल रही है। घट की प्रसिद्धि और कुम्भकार नाम पड़ने का कारण बता देने से कायलिंग स्पष्ट ही है। कुच के साथ घट की स्पर्धा में हम उपमा कहेंगे, क्योंकि दण्डी ने स्पर्धा करना, मुकाबले में खड़ा होना, लोहा लेना, मित्रता गाँठना आदि प्रयोगों को सादृश्य-वाचक ही माना है। विद्याधर घट पर कुचों के साथ स्पर्धा का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताने में असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति कह रहे हैं / वे अपहनुति भी मान रहे हैं जो हम नहीं समझे। हां, "शिल्पादिव' यों गम्योप्रेक्षा बन सकती है / 'कारी' 'कार:' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy