________________ 153 नैषधीयचरिते तत्पु० ) निजितेन पराजयं प्रापितेन ( तृ० तत्पु० ) एतदीयेन एतस्या दमयन्त्याः कर्णयोः श्रोत्रयोः उत्पलेन कमल-कलिकया अवतंसरूपेण कर्णयोः धृतयेत्यर्थः ( स० तत्पु० ) अपि सनाथम नाथेन सहितम् (ब० वी० ) युक्तमित्यर्यः मुखम् आननम् यदि लभेत प्राप्नुयात् ततः तहि कृतः अर्थः कृत्यं यया तथाभूता ( ब० वी० ) कृतकृत्येति यावत् सती स्वचक्षुषी स्वनयनद्वयम् (कर्मधा० ) किम किमर्थम् कुरुते धत्ते इत्यर्थः वैयर्थ्यात् ते त्यक्तुमेवोचितेत्यर्थः // 30 // व्याकरण-एतदीयेन एतस्या इदमिति एतत् + छ, छ को ईय, पुंवद्भाव / चक्षुः चष्टे ( पश्यति ) इति /चक्ष + उस् ( कर्तरि ) / अनुवाद-यदि मुगी ( दमयन्ती के ) नेत्रों की कान्ति द्वारा पराजित हुए इसके कर्णोत्पलों से युक्त भी मुख प्राप्त कर ले तो धन्य हुई उसने अपने नेत्रों का क्या करना है ? // 30 // टिप्पणी-दमयन्ती की वैसी आँखों वाले मुख की बराबरी तो दूर रही, उसकी आँखों से हार माने हुए उसके कर्णोत्पलों से युक्त मुख तक को भी यदि मृगी प्राप्त कर ले, तो अपनी आँखें उसे उनसे भी निकृष्ट प्रतीत होने लग जायेंगी और उन्हें वह ठुकरा ही देगी। भाव यह है कि मृगी की आंखों की अपेक्षा दमयन्ती के कर्णोत्पल ही उत्कृष्ट हैं और कर्णोत्पलों की अपेक्षा उसकी आँखों का उत्कृष्ट होना स्वतः ही सिर है। मृगी का यही परम सौभाग्य होगा यदि वह आँखों में दमयन्ती के कर्णोत्पलों की बराबरी प्राप्त करे। उसके नेत्रों की बराबरी का स्वप्न छोड़ दे। विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति है, क्योंक यदि शब्द के बल से कर्णोत्पल-सनाथ मुख का मृगी के साथ असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध की सम्भावना की गई है। हमारे विचारानुसार आँखों में अधिकता बताने से व्यतिरेक भी है / 'कुरु' 'कुर' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / त्वचः समुत्तार्य दलानि रीत्या मोचात्वचः पञ्चषपाटनायाम् / सारैर्गृहीतैर्विधिरुत्पलौघादस्यामभूदीक्षणरूपशिल्पी // 31 // अन्वयः-मोचा-त्वचः त्वचः उत्पलौघात् दलानि च रीत्या समुत्तार्य पञ्चषपाटनायाम् ( सत्याम् ) ( मोचात्वचः ) उत्पलौधात् च गृहीतः सारैः अस्याम् विधिः ईक्षण-रूपशिल्पी अभूत् / टीका-मोचाया रम्भायाः कदल्या इति यावत् ( रम्भा-मोचांशुमत्फला'