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________________ अष्टमः सर्गः 289 टिप्पणी-अर्धचन्द्र महादेव का चिह्न माना जाता है, क्योंकि वह उनके सिर पर विराजमान रहता है। महादेव देखो तो कामदेव के परम शत्रु ठहरे, क्योंकि उनके हाथों उनका विनाश हुआ है, अत एव वह शत्रुके चिह्नभूत अर्धचन्द्र या तत्सदृश किसी और वस्तु से डरता रहता है। नल के पैर का अंगूठा अर्धचन्द्र-जैसा था ही या यों समझ लीजिए कि नख के वेष में अर्धचन्द्र ही था। फिर शत्रु-चिह्न से भयभीत कामदेव अंगूठे की श्री को प्राप्त करे तो, कैसे करे ? शत्रु-चिह्न से सभी डरा करते हैं। भाव यह निकला कि काम शोभा में तुम्हारे अँगूठे की भी बराबरी नहीं कर सकता, शरीर की बराबरी तो दूर रही। यहाँ वेष शब्द व्याज का ही पर्यायवाची है, बल्कि कहीं-कहीं नखकैतवेन भी पाठ है / अतः विद्याधर अपहनुति मान रहे हैं, जो ठीक ही है, किन्तु वे यहाँ उससे उत्थित उत्प्रेक्षा भी मान रहे हैं जिसका वाचक शब्द वे 'खलु' को लेते हैं। नारायण ‘खलु' का अर्थ हेतु कर रहे हैं अर्थात् काम अंगूठे की श्री को इसलिए नहीं प्राप्त कर सक रहा है, क्योंकि उसमें शत्रु का चिह्न है। शत्रुचिह्न जब तथ्य है, तो उस पर कल्पना काहे की। उत्प्रेक्षा कल्पनामें ही होती है तथ्य में नहीं। हाँ, अनुमानालंकार बन सकता है जैसे-त्वदङ्गुष्ठः कामस्य जेता अर्धचन्द्रांकितत्वात्, यत्र 2 अर्धचन्द्रांकितत्वम् तत्र तत्र कामस्य जेतृत्वम् महादेववत्, / अपि शब्द से अर्थापत्ति स्पष्ट ही है। "श्रिता' 'श्री' में श और र वर्णों के साम्य में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। रतीशजेतुः-मल्लिनाथ इस पाठ का खण्डन करते हैं कि यहाँ प्रकृत कामदेव को 'कुसुमायुधेन' शब्द से प्रक्रान्त कर रखा है, तो रतीश शब्द से भी बताना पुनरुक्ति है, इसलिए प्रकृतार्थ का यहाँ सर्वनाम से ही निर्देश करना चाहिए न कि स्व नामसे, अतः वे 'जेतुस्तमेतत्' पाठ दे रहे हैं। जेतुः को तृन्नन्त मानकर ‘तम्' में द्वितीया है / राजा द्विजानामनुमासभिन्नः पूर्णां तनूकृत्य तनू तपोभिः / कुहूषु दृश्येतरता किमेत्य सायुज्यमाप्नाति भवन्मुखस्य // 37 // अन्वयः-अनुमास-भिन्नः द्विजानाम् राजा पूर्णाम् तनूम् तपोभिः तनूकृत्य कुहूषु दृश्येतरताम् एत्य भवन्मुखस्य सायुज्यम् आप्नोति किम् ? टीका-मासम् अनु इत्यनुमासम् प्रतिमासम् (अव्ययी० ) भिन्नः अन्यः द्विजानाम् नक्षत्राणाम् राजा ईशः चन्द्रः इत्यर्थ (ष० तत्पु० ) पूर्णाम् पूर्णिमायां
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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