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________________ 290 नैषधीयचरिते सकलकलापूर्णाम् तनुम् शरीरम् तपोभिः चान्द्रायणादिकृच्छः अतनुं तनुं सम्पद्यमानं कृत्वेति तनूकृत्य कृशीकृत्य. क्षयं नीत्वेति यावत् कुहूषु अमावास्यासु दृश्यात इतर इति दृश्येतरः ( पं० तत्पु० ) तस्य भावः तत्ता ताम् एत्य प्राप्य अदृश्यो भूत्वेत्यर्थः भवतः तव मुखस्य वदनस्य (10 तत्पु० ) सायुज्यम् ऐक्यम् आप्नोति प्राप्नोति किम् ? पौर्णमासीचन्द्रः तपस्यया स्वशरीरं क्रमशः कृशीकृत्य अन्ते अमावास्यायाम् अदृश्यः सन् त्वन्मुखेनैक्यं प्राप्नोतीवेति भावः / अत्र शब्दशक्त्या अयमपरोऽप्यर्थों द्योत्यते-कश्चित् द्विजराजः = श्रेष्ठब्राह्मणः अनुमासं तपश्चरित्वा शरीरञ्च कृशीकृत्य अन्तिमशरीरे अदृश्य = अत्यन्तविमोक्षं प्राप्ते ब्रह्मकात्म्यं प्राप्नोति / / 37 // व्याकरण-द्विजानाम् द्विर्जायन्ते इति द्वि + /जन् + ड / तनूकृत्य तनु + वि, पूर्व दीर्घ/कृ + ल्यप् / सायुज्यम् सयुजो भाव इति सयुज् प्यञ् सयुज सह युनक्ति ( आत्मानम् / इति सह + V युज् + क्विप् / अनुवाद-प्रतिमास भिन्न-भिन्न चन्द्रमा संपूर्ण शरीर को तपस्याओं द्वारा क्षीण करके अमावास्याओं की रात्रियों में अदृश्य होकर आपके मुख के साथ ऐकात्म्य प्राप्त कर लेता है क्या ? जैसे कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण तप द्वारा शरीर को कांटा बनाकर अन्त में ब्रह्मसायुज्य प्राप्त कर लेता है" // 37 // टिप्पणी हम देखते हैं कि पौर्णमासी का सर्वकला-पूर्ण चन्द्र धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है और अन्त में अमावास्या को लुप्त हो जाता है। इस पर कवि की कल्पना है कि मानो तुम्हारे लोकातीत सौन्दर्य-पूर्ण मुख को देख अत्यन्त प्रभावित हुआ चन्द्रमा चान्द्रायणादि कठोर तप द्वारा शरीर को सुखाता जाता हुआ अन्त में तुम्हारे साथ ऐकात्म्य प्राप्त कर गया हो। इस तरह उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक 'किम्' शब्द है। विद्याधर यहाँ अपहनुति और अतिशयोक्ति कह रहे हैं। किन्तु हमें यहाँ अपह्नव कहीं देखने में नहीं आ रहा है। सम्भवतः वे 'दृश्येतरताम् एत्य' = 'अदृश्य होने के व्याज से' यों आर्थ अपह्नव ले रहे हों। अतिशयोक्ति भी हम नहीं समझ पा रहे हैं। संभवतः वे दो विभिन्न द्विजराजों का अभेदाध्यवसाय मान रहे हैं, लेकिन दूसरे प्रतीयमान अर्थ को हम ध्वनि के भीतर ले रहे हैं, क्योंकि उसका प्रकृतार्थ से कोई सम्बन्ध ही नहीं, अतः उनका औपम्यभाव सम्बन्ध स्थापित करके यह निरी शब्दशक्त्युद्भव उपमाध्वनि है / 'तनू' 'त' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है /
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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