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________________ नवमः सर्गः 391 वा शीघ्रसूचनम् हि दूत-गुणः स च कालातियापनं कुर्वति मयि नास्तीति भावः // 21 // व्याकरण-मत्पथे समास में पथिन् शब्द को समासान्त अप्रत्यय हो जाता है। अवदधन्ति अव + Vधा + शत नपुंसक में विकल्प से नुमागम, हि०ब० / माम् धिक धिक्के योग में द्वि० / प्रेष्यः प्रेषयितुं योग्य इति प्र + ईष् + ण्यत् / अनुवाद ... इतनी देर तक मेरी बाट जोहती हई इन्द्र की आँखें वज्र द्वारा नहीं बनी हैं क्या ? शीघ्र ही किये जाने वाले कार्य में ढीले ढाले बने हुए मुझको धिक्कार हो जिसके भीतर दूसरे का दूत बनने का गुण भी नहीं हैं / / 21 // टिप्पणी-शीघ्र ही देवताओं को दमयन्ती से उनके सन्देश का जवाब न पहुँचाने में नल झुंझला रहा है और अपने को धिक्कार रहा है कि जब उसमें दूत का अपेक्षित गुण है ही नहीं तो वह क्यों दौत्य स्वीकार कर बैठा / दूत का गुण यही होता है कि वह तुरत-फूरत संदेश का जवाब हाँ या ना में ले आवे। विद्याधर 'अत्रातिशयोक्त्यलंकारः' कह रहे हैं जो हम नहीं समझे / हमारे विचार से तो कवि की इस कल्पना में कि मानो इन्द्र की आँखें वज्रमय हों जो वे बाट जोहते जोहते फूटी नहीं हैं उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक यहाँ 'किम्' है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 21 // इदं निगद्य क्षितिभर्तरि स्थिते तयाभ्यधायि स्वगतं विदग्धया। अधिस्त्रि तं दूतयतां भुवः स्मरं मनो दधत्या नयनैपुणव्यये // 22 // अन्वयः-क्षितिभर्तरि इदम् निगद्य स्थिते ( सति ) भुवः स्मरम् तम् अधिस्त्रि दूतयताम् नय नैपुण-व्यये मनः दधत्या विदग्धया तया स्वगतम् अभ्यधायि / टीका-क्षितेः भुवः भर्तरि स्वामिनि नृपे नले (10 तत्पु० ) इदम् पूर्वोक्तम् निगद्य कथयित्वा स्थिते मौनम् आकलितवति सति भुवः पृथिव्याः स्मरम् कामम् स्मरवत् अत्यन्तसुन्दरम् तम् जनम् नलमित्यर्थः स्त्रीषु इत्यधिस्त्रि ( अव्ययी०) दूतयताम् दूतीकुर्वताम् दौत्यकर्मणि विनियोजयताम् देवानाम्
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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