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________________ नैषधीयचरिते इत्यर्थः / भक्तिभावेन मालां शिरसि निधाय प्राणमत्, प्रेमोपहार-रूपेण गृहीत्वा तां नाभरणीकृतवतीति भावः // 90 // व्याकरण-भूः भवत्यस्मादिति भू + क्विप ( अपादाने) / स्मितम् स्मि + क्त ( भावे ) / दृक पश्यतीति /दृश + क्विप् ( कर्तरि ) / संज्ञा सम् + Vज्ञा + अङ् - टाप् / उत्तरयाञ्चकार उत्तरम् = उत्तरवती ( 'सुखादयो वृत्तिविषये तद्वति वर्तन्ते' ) करोतीति ( नामधातु ) उत्तर + णिच् + लिट् अथवा उत्तरम् आचष्टे इति उत्तर० / अनुवाद-थोड़ी-सी मुस्कान द्वारा ओष्ठ-प्रान्तभागों को प्रकाशित किये तथा आँखों के इशारे से उन-उन सखियों को ( आगे बोलने से ) रोके हुए दमयन्ती ने पारिजात-माला सहित इन्द्र को नमस्कार करके उस ( दूती ) को उत्तर दिया। 90 // टिप्पणी-जिस प्रकार लोग देवताओं के माल्य को श्रद्धा-भक्ति सहित शिर से लगाते हैं, उसे नमस्कार करते हैं, वही बात दमयन्ती ने भी की। उसको और उसे भेजने वाले के लिए उसके हृदय में भक्तिभाव ही उभरा, अनुराग नहीं, अन्यथा उसे चूमती, गले लगाती। वैसे भी लोक में हम देखते हैं कि जिस बात को हम स्वीकारते नहीं, उसके लिए 'नमस्कार है उसे' ऐसा मुहाविरा प्रयोग में लाते हैं। इस तरह 'माला और इन्द्र-दोनों को नमस्कार' इस लाक्षणिक रूप में लेकर यह अर्थ निकल जाता है कि दोनों मुझे स्वीकार नहीं / यहाँ वृत्त्यनुप्रास है। स्तुती मघोनस्त्यज साहसिक्यं वक्तुं कियत्तं यदि वेद वेदः / मृषोत्तरं साक्षिणि हृत्सु नृणामज्ञातृविज्ञापि ममापि तस्मिन् // 91 / / अन्वयः-(हे द्रति ! ) मघोनः स्तुतौ साहसिक्यम् त्यज / तम् वक्तुम् यदि ( कश्चित् ) वेद ( तर्हि ) वेदः, ( सोऽपि ) कियत् / नृणाम् हृत्सु साक्षिणि तस्मिन् अज्ञातृ विज्ञापि मम अपि उत्तरं मृषा। टीका-(हे दूति ! ) मघोनः इन्द्रस्य स्तुती स्तवे 'लोकस्रजि द्यौः' (6 / 81 ) इत्यादि-रूपेण त्वरिक्रयमाणायाम् इन्द्रस्य प्रशंसायामित्यर्थः साहसिक्यम् साहसिकत्वम् अविमृष्यकारित्वमिति यावत् त्यज जहि / तम् इन्द्रम् वक्तुम् प्रतिपादयितुम् स्तोतुमित्यर्थः यदि कश्चित् वेद जानाति, तहि वेदः श्रुतिः सोऽपि
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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