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________________ नैषधीयचरिते तुल्यः समानः / सर्वोऽपि प्राणिवर्गः स्व-स्वाभीष्टवस्तू-प्राप्त्या समानरूपेण आत्मानं कृतकृत्यं मन्यते / ममाभीष्टो नल: तल्लाभे एव मज्जीवनस्य सार्थकता नेन्द्रलाभे इति भावः / भिन्ना पृथक-पृथक् स्पृहा रुचिः ( कर्मधा०) येषां तथाभूतानाम् ( व० वी० ) जनानामिति शेषः अर्थम् अर्थम् प्रति प्रार्थम् प्रतिवस्तु द्विष्टत्वम् द्वेषः इष्टत्वम् इच्छाविषयत्वम् च अपगता अपसृता व्यवस्था नियमः यस्य तथाभूतम् (प्रादि ब० वी०) भवतीति शेषः / पूर्वजन्मकृत-रुचिमेदकारणात् कोऽपि किमपीच्छति किमपि च द्वेष्टि / सर्वेषु वस्तुषु सर्वेषाम् समाना स्पृहा समानञ्च द्वेषो भवेदिति नास्ति लोके नियमः / तस्मात् नले एव मे स्पृहा नेन्द्र इति भावः // 106 / / ___व्याकरण-अभीष्ठ अभि इष् + क्तः ( कर्मणि ) / कृत्यम् क्रियते इति कृ + क्यप, तुगागम / स्पृहा/ स्पृह + अ + टाप् / अर्थम् अर्थम् वीप्सायां द्वित्वम् / द्विष्टत्वम् /द्विष् + क्त+ त्व। अनुवाद-कीट से लेकर विष्णु पर्यन्त ( जीव-जगत् में ) अपनी अभिलषित वस्तु पा जाने से कृतकृत्यता समान है / भिन्न-भिन्न रुचि वालों की वस्तुवस्तु के प्रति इच्छा और द्वष की व्यवस्था नहीं // 106 // टिप्पणी-यहाँ कवि मानव-मनोविज्ञान का यह पहलू खोल रहा है कि मनुष्य रूपेण समान होने पर भी सब में रुचिभेद अपना-अपना है। जिसे हम चाहते हैं, उससे दूसरा द्वोष रखता है। जिससे दूसरे का द्वष है, उससे हमारा अनुराग है। हमारा भी इससे द्वष ही हो, ऐसी कोई बात हम मानव-स्वभाव में नहीं पाते। इसीलिए मनुष्यों को लक्ष्य करके वेद ने भी कहा है-'मनोजवेष्वसमा बभवः / ' मनोविज्ञानवादी जहाँ इस जीवन-सत्य का कारण नहीं बता सके, स्वाभाविक करार देकर छोड़ गये हैं, वहाँ हमारे दर्शनकारों ने इसका कारण पूर्वजन्म के संस्कारों में हूँढ़ा है। इसी तथ्य को अपने तर्क का आधार बनाकर दमयन्ती को अपनी सखियों के प्रति यह उलाहना है कि मेरी रुचि जब नल पर है, तो तुम्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि नल को छोड़कर इन्द्र से अनुराग करो ? यहाँ विद्याधर काव्यलिङ्ग कह रहे हैं। हमारे विचार से पूर्वाध में कीट से लेकर विष्णु तक कही विशेष बात को उत्तरार्ध-गत सामान्य बात से समर्थन मिलने से अर्थान्तरन्यास है / 'कीट' 'कैट" कृत' 'कृत्य' 'चार्थमर्थं' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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