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________________ 456 नैषधीयचरिते न होने के कारण विघ्न खड़ा करने के लिए ( स्वयंवर-स्थल में ) अनुपस्थित रहे तो राज-समूह में मार-काट हो जाने से वह स्वयंवर ही-जिस में वर एकदूसरे से स्पर्धा रखते हैं-कैसे होगा ?" // 78 // टिप्पणी-नारायण के अनुसार नल अब अपनी नीति का अन्तिम उपाय दण्ड को अपना रहे हैं। देवताओं को न वरने पर दमयन्ती को ऐसा दण्ड देना चाहते हैं कि वह नल को वर ही न सके / वे धमकी दे रहे हैं कि तुम्हारा स्वयंवर ही निर्विघ्न सम्पन्न नहीं हो सकेगा, नल-वरण दूर रहा' / शास्त्रानुसार विघ्न-निवारण हेतु स्वयंवर में इन्द्राणी की उपस्थिति का विधान है। उसकी उपस्थिति सभी विघ्नों का निराकरण कर देती है। कालिदास ने भी इस बात का उल्लेख रघुवंश में अज के साथ इन्दुमती के स्वयंवर में इस प्रकार कर रखा है:-सानिध्ययोगात् किल तत्र शच्याः स्वयंवरक्षोभकृतामभावः / यहाँ श्लोक में "विघ्नसिद्धये' से आपाततः ऐसा लगा है कि विध्न संपादन हेतु, न कि विघ्नविघात हेतु शची का सान्निध्य अपेक्षित है, इस लिए 'विघ्नासिद्धये' ऐसा पाठ होना चाहिए था किन्तु कवि का अभिप्राय यह है कि दमयन्ती द्वारा इन्द्र के ठुकराये जाने पर रुष्ट हुए वे अपनी पत्नी शची को स्वयंवर-स्थल में नहीं जाने देंगे और चाहेंगे कि विघ्न उपस्थित हो जाय / परिणाम स्वरूप राजाओं में परस्पर मार-काट छिड़ जाने पर स्वयंवर ही होने से रह जायगा, फिर देखें कि दमयन्ती कैसे नल को वरती है। स्वयंवर न होने का कारण बताने से काव्यलिङ्ग है / 'पति' 'पत्यु', 'परस्परम्' - तथा 'वरः' 'वरः' में छेकानुप्रास है / / 78 // निजस्य वृत्तान्तमजानतां मिथो मुखस्य रोषात्परुषाणि जल्पतः / मृधं किमच्छत्रकदण्डताण्डवं भुजाभुजि क्षोणिभुजां दिदृक्षसे / / 7 / / अन्वयः-मिथः रोषात् परुषाणि जल्पतः निजस्य मुखस्य वृत्तान्तम् अजानताम् क्षोणिभृताम् अच्छत्रकदण्डताण्डवम् भुजाभुजि (च) मृधम् ( त्वम् ) दिदृक्षसे किम् ? टीका-मिथः परस्परम् यथा स्यात्तथा रोषात् कारणात् परुषाणि कठोराणि वचनानीति शेषः जल्पतः कथयतः परस्परमाक्रोशतः इति यावत् निजस्य स्वकीयस्य मुखस्य वक्त्रस्य वृत्तान्तम् व्यापारमित्यर्थः अजानताम् तस्य अनभिज्ञानाम् मया स्वमुखेन किं किभुक्तमिति क्रोधात अविदितवतामिति यावत् क्षोणि पृथिवीं
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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