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________________ नवमः सर्गः 383 ('ददाति-दधात्योविभाषा' 3 / 1 / 139) / शित्व होने से शप की तरह हित्व / पदे-पदे वीप्सा में द्वित्व / अनुवाद-शारद ( सरस्वती का वरद पुत्र ) तथा अहितापकारक (शत्रुओं को चोट पहुंचाने वाला ) यह ( नल ) यह कहकर इस तरह चुप हो गया जैसे शारद ( शरत्कालीन ) और अहितापकारक ( सॉपो को संताप पैदा कर देने वाला) मोर चुप हो जाया करता है। इसके बाद इस ( नल ) के ( कहे ) (पदे-पदे ) शब्द-शब्द पर राग ( अनुराग) रखे विदर्भ-राजकुमारी इस तरह बोली जैसे ( पद-पद ) प्रत्येक पैर में चोंच की सी लाली रखे हंसनी बोला करती है / / 14 // टिप्पणी-यह प्रसिद्ध ही है कि वर्षाकाल में मोर बोलता है और शरद् आते ही वह मौन अपना लेता है। इसी तरह वर्षाकाल में हंसिनी मौन अपनाये रहती है और शरद में बोलने लग जाती है। यहाँ चुप हुए नल की तुलना मोर से और बोल रही दमयन्ती की तुलना हँसिनी से की गई है लेकिन सादृश्य दोनों में आर्थ नहीं, शाब्द है, जो कवि ने शब्दों में श्लेष रखकर बनाया है / इस तरह यहाँ दो श्लिष्टोपमाओं की संसृष्टि है 'पदे-पदे' में छेक और उसका 'पदे' 'ददे' में तुक मिल जाने से पादान्तगत अन्त्यानुप्रा के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 14 // सुधांशुवंशाभरणं भवानिति श्रुतेऽपि नापैति विशेषसंशयः / कियत्सु मौनं वितता कियत्सु वाङ्महत्यहो वञ्चनचातुरी तव / / 15 / / अन्वयः-- भवान् सुधांशु-वंशाभरणम् ( अस्ति ) इति श्रुते अपि विशेषसंशयः न अपैति / कियत्सु मौनम् ( अवलम्बितम् ) कियत्सु ( च ) वाक् वितता / तव महती वञ्चन चातुरी अहो / टीका-भवान् आर्यः सुधा अमृतम् अंशुष किरणेषु यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) चन्द्रस्येत्यर्थः वंशस्य कुलस्य आभरणम् आभूषणम् उभयत्र प० तत्पु० ) अस्तीति शेष इति एवं श्रुते आणिते अपि विशेषे संशयः सन्देहः ( स० तत्पु० ) न अपैति न निवर्तते चन्द्रवंशे कतमोऽस्ति भवानिति विशेषविषयकसंशयो यथावत् तिष्ठत्येवेति भावः / कियत्सु स्थानेषु नामादिविषयेषु मौनम् तूष्णीभावः अवलम्बितमिति शेषः, कियत्सु च विषयेषु आगमनप्रयोजने
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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