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________________ सप्तमः सर्गः 191 पर वसन्तत्वारोप और रति ( प्रेम ) पर रति ( पत्नी )-त्वारोप में रूपक काम कर रहे हैं। मल्लिनाथ परिणामालंकार कह रहे हैं क्योंकि आरोप्यमाण यहाँ प्रकृतोपयोगी बने हुए हैं। विद्याधर रूपक और अतिशयोक्ति मानते हैं / अतिशयोक्ति मधु और रति में होगी, जहाँ विभिन्न मधुओं और रतियों का अभेदाध्यवसाय हो रखा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। वियोगवाष्पाञ्चितनेत्रपद्मच्छमापितोत्सर्गपयःप्रसूनौ / कर्णी किमस्या रतितत्पतिभ्यां निवेद्यपूपौ विधिशिल्पमीहक् // 61 / / अन्वय ... ईदृक् विधि-शिल्पम् ( यत् ) वियोग''प्रसूनौ अस्याः कौं रतितत्पतिभ्याम् निवेद्य-पूपौ किम् / टीका- ईदृक् एतादृशम् अद्भुतम् विधेः विधातुः शिल्पम् कला-निर्माणम् अस्ति यत् वियोगः विरहः तेन ये वाष्पाः अश्रूणि नलवियोगजनिताश्रु धारेत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) तैः अञ्चिते पूजिते (त० तत्पु० ) युक्ते इत्यर्थः ये नेत्रपझे ( कर्मधा० ) नेत्रे पद्म इब ( उपमित तत्पु० ) कमलसदृशे नयने तयोः ४ाना व्याजेन ( 10 तत्पु० ) अपिते प्रदत्ते ( तृ० तत्पु० ) उत्सर्गाय दानाय पयःप्रसूने ( च० तत्पु० ) पय: जलम् च प्रसूनम् पुष्पं चेति ( द्वन्द्व ) ययोः तथाभूतौ (ब० वी० ) अस्याः दमयन्त्याः कर्णौ श्रोत्रे रतिः देवीविशेषश्च तत्पतिः कामश्चति ( द्वन्द्व ) तस्याः पतिः ( 10 तत्पु० ) ताभ्याम् निवेद्यौ नैवेद्य-रूपेण समपणीयो पूपौ अपूपो ( कर्मधा० ) अथवा निवेद्यस्य नैवेद्यस्य नैवेद्यसम्बन्धिनाविति यावत् ( 10 तत्पु० ) पूपी ( 'पूपोऽपूपः पिष्टकः स्यात्' इत्यमरः ) किम् ? वाष्परूपेण जलेन नेत्ररूपेण पुष्पेण च सहकामरतिभ्याम् देवताभ्याम् आहारार्थ नैवेद्य-रूपेण दीयमानौ अपूपी ब्रह्मणा दमयन्त्या कर्णरूपेण रचिताविति अहो शिल्पं ब्रह्मणः इति भावः // 61 // व्याकरण-ईक इदम् + दृश् + क्विन् / प्रसूनम् प्र + + क्त, त को न / उत्सर्ग: उत् + सृज् + घञ् / अनुवाद-ब्रह्मा का ऐसा ( अद्भुत ) शिल्प है कि वियोग के ऑसू से युक्त कमल-नेत्र के बहाने चढ़ाये हुए दानार्थ जल और पुष्प सहित इस ( दमयन्ती ) के कान रति और काम इन दोनों ( देवताओं) के लिए नैवेद्य-रूप पूड़े हैं। क्या ? // 61 //
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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