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________________ नैषधीयचरिते विना माँगे ही त्रैलोक्य-राज्य मिल रहा है। उसके लिए भी इन्द्र तुमसे प्रार्थना कर रहा है, यह तुम्हारे लिए कितने गौरव की बात है। यहाँ काव्यलिङ्ग हैं किन्तु विद्याधर समासोक्ति भी कह रहे हैं जो हमारी समझ में नहीं आ रहा है। संभवतः उनका यह विचार हो कि अनुराग चेतन से ही होता है, इसलिए यहाँ राज्यका चेतनीकरण है। मल्लिनाथ 'व्यतिरेकेण दृष्टान्तालंकारः' कह रहे हैं। यह भी हम नहीं समझे। दृष्टान्त में वाक्यद्वय-गत विभिन्न धर्म होते हैं, जिनका परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव होता है। यहाँ त्रैलोक्य-राज्य-प्राप्ति दोनों जगह समान धर्म है। व्यतिरेक अर्थात् वैधयं यदि है तो केवल इसी अंश में कि तुम्हें त्रैलोक्य-राज्य मिलने में गौरव है जबकि विष्णु को मिलने में लघुता है / 'रज्य' 'राज्य' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यानेव देवान्नमसि त्रिकालं न तत्कृतघ्नीकृतिचिती ते। प्रसीद तानप्यनृणान्विधातुं पतिष्ट तस्त्वत्पदयोस्त्रिसन्ध्यम् / / 85 / / अन्वयः--( हे दमयन्ति ! ) यान् एव देवान् ( त्वम् ) त्रिकालम् नमसि तत्कृतघ्नीकृतिः ते औचिती न / त्रिसन्ध्यम् त्वत्पदयोः पतिष्यतः तान् अपि अनृ. णान् विधातुम् प्रसीद। टीका--( हे दमयन्ति ! ) यान् एव देवान् देवताः त्वम् त्रिकालम् त्रयः कालाः प्रातः, मध्याह्नः, सायम् यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( ब० वी० ) नमसि प्रणमसि नमस्करोषीति यावत् तेषाम् देवानाम् कृतघ्नीकृति कृतघ्नीकरणम् अकृतज्ञतापादनमित्यर्थः ( 10 तत्पु० ) ते तव औचिती उचितत्वं न अस्तीति शेषः / त्वं नित्यं देवतानां प्रणामं करोषि अतः देवैरपि तव प्रत्युपकार: कर्तव्यः इति भाव: त्रिसन्ध्यम् तिस्रः सन्ध्याः प्रातःसन्ध्या, माध्यन्दिन-सन्ध्या, सायं सन्ध्या च यस्मिन् कर्मणि यथास्यात्तथा ( ब० वी० ) त्रिकालमिति यावत् तव ते पदयोः चरणयोः पतिष्यतः नमस्करिष्यतः तान् देवान् अपि न ऋणम् येषु तथाभूतान ( नञ् ब० बी० ) ऋणमुक्तानित्यर्थः विधातुम् कर्तुम् प्रसीद प्रसन्ना भव अनुगृहाणेति यावत् / देवान् प्रणमन्ती त्वं तान् ऋणीकरोषि इन्द्रवरणानन्तरम् इन्द्रं प्रणमन्तो देवाः त्वामपि प्रणंस्यन्तीति ते त्वत्तः ऋणमुक्ता भविष्यन्तीति भावः // 85 // व्याकरण-त्रिकालम् , त्रिसन्ध्यम् इन्हें क्रिया-विशेपण न बनाकर त्रयाणां
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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