SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 510
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवमः सर्गः 507 जनानाम् अर्दन इति जनार्दनं वदन, (10 तत्पु० ) क्षये प्रलये कल्पान्ते इति यावत् जगतः संसारस्य जीवस्य प्राणानाम् पिबम् पानकर्तारम् जगत्संहारकमिति यावत् महादेवमिति शेषः शिवम् कल्याणकरम् वदन् ब्रवन स प्रसिद्धः परः अन्यो जनः दुर्जन इत्यर्थः अनर्गलो मूों लोक इति यावत् यत् वदिष्यति मत्सम्बन्ध कथयिष्यति तत् अहं वेद जानामि / उन्मादावस्थायाम् आत्मानं प्रकाशिवन्तम् माम् तत्त्वत एव प्रकाशितवन्तम् बुद्ध्वा लोको निन्दिष्यति चेत् निन्दतु नाम अहं तु सर्वथा निर्दोष एवास्मीति भावः // 124 / / व्याकरण-धी: ध्यायते इति/ध्य + क्विप् ( भावे ) सम्प्रसारण / अवनाय/अव् + ल्युट् ( भावे ) / अर्वन: अर्दयतीति /अ + ल्यु ( कर्तरि)। पिबम् पिवतीति+Vपा+शः ( कर्तरि ) पा को पिबादेश / वेव/विद् + लट् विकल्प से णमुलादेश। अनुवाद-"स्वयं जान-बूझकर वस्तुतः मैंने बुरा नहीं किया है। जनों की रक्षा हेतु प्रयलशील (विष्णु ) को जनार्दन ( जन-पीड़क ) और प्रलयकाल में जगत् के प्राणों को पी जाने वाले ( महादेव ) को शिव ( कल्याणकारी ) कहने वाले अन्य लोग तो जो ( कुछ ) कहेंगे, सो मैं जानता हूँ"। 124 // टिप्पणी-दुनिया का मुंह कोई बन्द नहीं कर सकता है। वह उल्टी चलती है / भले को बुरा और बुरे को भला कह देती है। भवभूति ने भी ऐसाजैसा ही कहा है-'यथा वाचां तथा स्त्रीणां साधुत्वे दुर्जनो जनः / कबीर का भी कहना है-'रंगी को नारंगी कहें, बने दूध को खोया। चलती को गाड़ी कहें, देख कबीरा रोया'। अतः मन शुद्ध होना चाहिए। फिर दुनिया की कोई पर्वाह नहीं। यहां विद्याधर ने हेतु अलंकार कहा है, जो समझ में नहीं आ रहा है। 'चारु' 'चरं' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 124 // . स्फुटत्यदः किं हृदयं त्रपाभराद्यदस्य शुद्धिर्विबुधैर्विबुध्यताम् / विदन्तु ते तत्त्वमिदं तु दन्तुरं जनानने कः करमर्पयिष्यति // 125 // अन्वयः-त्रपा-भरात् अद: हृदयम् किम् स्फुटति ? यत् विबुधः अस्म शुद्धिः विबुध्यते; तु ते इदम् दन्तुरम् तत्त्वम् विदन्तु / जनानने का करम् अपयिष्यति / टोका-त्रपा मया स्वनाम प्रकटितम् देवानां कार्यञ्च न कृतमिति कारणात्
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy