SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टमः सर्गः 295 शोभया अनङ्गीकरणात् अस्वीकारात् अनाश्रयणादित्यर्थः दृश्यः न / या श्री: त्वामाश्रयति सा तं नाश्रयतीति लज्जाकारणात् कामः स्वमुखं लोकं न दर्शयितुमिच्छुः सन् अदृश्यीभूत इत्यर्थः इति नवीनः नूतनः वादः वचनं वस्तु तथ्यं प्रतिभाति प्रतीयते / त्वम् कामापेक्षया अतिसुन्दरोऽसीति भावः / / 41 // व्याकरण-स्मरः ( स्मरणम् ) स्मृ + अप् ( भावे ) / भवः भवत्यस्मात् ( जगत् ) इति /भू + अप् ( अपादाने ) / अनङ्गीकरणात् न + अङ्ग + च्वि, इत्व + कृ + ल्युट् / दृश्यः द्रष्टुं शक्य इति /दृश + यत् / वाद:/वद् + घञ् ( भावे ) / __ अनुवाद-महादेव द्वारा अनङ्गीकरण-भस्म करके शरीर-रहित किये जाने के कारण कामदेव देखने में नहीं आता है—यह पुरानी बात छोड़ दो, नई सही बात तो यह मालूम होती है कि तुम्हारे ही शरीर का आश्रय लिय सौन्दर्य द्वारा अनंगीकरण न अपनाये जाने के कारण वह ( लज्जा के मारे ) देखने में नहीं आ रहा है // 41 // टिप्पणी-भाव यह है कि जो श्री ( सौन्दर्य ) तुम्हारे शरीर में है, वह कामदेव के शरीर में नहीं, इसलिए तुम्हारे सौन्दर्य से मात खाया हुआ बेचारा कामदेव लाज के मारे लोगों को अपना मुँह कैसे दिखावे ? झट भूमिगत अर्थात् अदृश्य हुआ बैठा है। सभी आत्माभिमानी पराभूत हो ऐसा ही किया करते हैं / महादेव ने कामदेव को भस्म कर दिया था, इसलिए अनंग हुआ वह अदृश्य है-यह पुरानी वात अथवा पुराणों की गप हमें नहीं माननी चाहिए। यह कवि की सरासर नयी कल्पना है, अतः उत्प्रेक्षालंकार है। विद्याधर के शब्दों में 'अत्रातिशयोक्तिरलङ्कारः' क्योंकि यहाँ विभिन्न 'अनंगीकरणों' में अभेदाध्यवसाय है / 'वस्तु' 'वस्तु' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / त्वया जगत्युच्चितकान्तिसारे यदिन्दुनाशीलि शिलोवृत्तिः / आरोपि तन्माणवकोऽपि मौलौ स यज्वराज्येऽपि महेश्वरेण // 42 / / अन्वयः-त्वया उच्चित-कान्ति-सारे जगति इन्दुना शिलोञ्छ वृत्तिः यत् अशीलि, तत् महेश्वरेण स माणवकः अपि मौली यज्वराज्ये अपि (च) आरोपि / टीका-त्वया उच्चितः गृहीतः कान्तिसारः ( कर्मधा० ) कान्तेः सौन्दर्यस्य सारः श्रेष्ठांशः ( 10 तत्पु० ) यस्मात् तथाभूते (ब० वी० ) जगति संसारे
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy