________________ नवमः सर्गः 485 सारवन्तं करोषि, इन्द्रादिदेवान अपाकृत्य मय्यनुरज्यन्त्या त्वयाऽहं धन्य-धन्यतां -नीत इति भावः / / 104 // व्याकरण- तिः सु + क्तिन् ( भावे ) कैतवात् कितवस्य भाव इति कितव+अण् / बिन्दुः इसके लिए पीछे श्लो० 85 देखिए / च्युतकम् च्यु + क्त -( भावे ) + क ( स्वार्थे ) / संसारः सम् + सृ + घन ( भावे ) / अनुावद-“ओ इन्द्रनीलमणि-जैसी (काली) पुतली-युक्त आंखों वाली (दमयन्ती ) ! घने अश्र बिन्दु बहाने के छल से 'बिन्दुच्युतक' बिन्दु पात, अलंकार विशेष में तुम्हारी बड़ी भारी चतुरता चमक रही है। तभी तो तुम सचमुच संसार ( जगत्, 'संसार' शब्द ) को अपने द्वारा ससार (सारयुक्त, अनुस्वार-रहित ) कर रही हो" // 104 // टिप्पणी-दमयन्ती नैराश्य में आकर अश्रु बिन्दुयें गिरा रही है, लेकिन नल उसे उसका कैतव बता रहा है अर्थात् वह यों ही झूठमूठ रोकर अश्र बिन्दु गिराने की चतुराई दिखा रही है जैसे स्त्रियां प्रायः किया ही करती हैं / 'बिन्दुच्युतकाविचातुरी' शब्द में श्लेष रख कर कवि यह भी बता रहा है कि अश्र - बिन्दु गिराने के बहाने दमयन्ती बिन्दुच्युतक नामक शब्दालंकार के प्रयोग में अपनी चातुरी दिखा रही है। बिन्दुच्युतक एक ऐसा अलंकार होता है जिसमें अक्षर के ऊपर किसी बिन्दु 'अर्थात् अनुस्वार गिराया-हटाया जाता है और वाक्य का फिर और ही अर्थ कर दिया जाता है इसका एक उदाहरण लीजिए'कान्तो नयनानन्दी बालेंदु:खे न भवति' अर्थात् सुन्दर और नयनों को आनन्ददायका बाल नया ) चन्द्र आकाश में नहीं है। अब यहां बालेंदु शब्द में से 'ले', अक्षर का बिन्दु ( अनुस्वार ) हटा दीजिए, तो वाक्य बनेगा बाले दुःखेन भवति अर्थात् ओ लड़की! आंखों को आनन्द देने वाला (सुन्दर ) कान्त ( पति ) कठिनाई से मिलता है। प्रकृतमें भी संसार शब्द में से बिन्दु हटाकर उसे 'ससार' करके उसका सारयुक्त अर्थ दिया जाता है अर्थात् दमयन्ती 'संसार' को नल के लिए बिन्दु गिराकर 'ससार' बना रही है / यहां केतब शब्द से अश्रु बिन्दु-च्युति पर वर्णात्मक बिन्दुच्युतकत्वारोप होने से कतवापह्नति है जिसका बिन्दुच्युतक, संसार और ससार शब्दों के विभिन्न अर्थ होते हुए भी श्लेष-मुखेन अभेदाध्यवसाय में बनने वाली भेदे अभेदातिशयोक्ति के साथ संकर