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________________ 35 545 नवमः सर्गः तस्मिन् राजाधिष्ठित-स्वयंवर-स्थले इत्यर्थः गतिम् आगमनम् अभ्युपगम्य स्वीकृत्य अपत्रपया मया देवानां कार्य न कृतमिति कृत्वा लज्जया नतः ननः मौलिः शिरः ( कर्मधा० ) यस्य तथासूतः ( ब० बी० ) सन् ययौ जगाम // 157 // व्याकरण-भूः भवत्यस्मादिति/भू + क्विप् ( अपादाने ) / अपत्रपा अप + Vत्रप् + अङ् ( भावे ) + टाप् / अनुवाद--तदनन्तर राजा ( नल ) भैमी द्वारा ही एकान्त में चुपकेसे कही इस बात को कि (स्वयंवर के समय ) राज-समाज में तुम भी आना स्वीकार करके लज्जा के मारे सिर नीचे किये चल दिए // 157 // टिप्पणी-नल को लज्जा एक तो इस बात से हो रही थी कि वे देवताओं का काम बनाने में सफल नहीं हो सके ? दूसरे इस बात से भी कि दमयन्ती उसका वरण कर रही है। विवाह में लज्जा होना स्वाभाविक है। विद्याधर यहां सहोक्ति अलंकार कह रहे हैं लेकिन वह नहीं हो सकती है, क्योंकि वह तभी होती है जब उसके मूल में अतिशयोक्ति भी हो। 'राज-समाज' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / श्लोक में छन्द तोटक है, जिसका लक्षण है-'वद तोटकब्धिसकारयुतम्' (स, स, स, स ) / श्वस्तस्याः प्रियमाप्तमुद्धरधियो धाराः सृजन्त्या रथा नम्रोन्नम्रकपोलपालिपुलकैर्वतस्वतीरश्रुणः / चत्वारः प्रहराः स्मरातिभिरभूत्सापि क्षपा दुःक्षया तत्तस्यां कृपयाखिलैव विधिना रात्रि स्त्रियामा कृता // 158 / अन्वयः-श्वः प्रियम् आप्तुम् उद्धरधियः, (तथा) ननोन्नम्र-कपोलपालिपुलकै: वेतस्वती! अश्रुणः धाराः रयात् सृजन्त्याः तस्याः ( यत् ) चत्वारः प्रहरा अपि सा क्षपा स्मरातिभिः दुःक्षया अभूत् तत् तस्याम् कृपया विधिना अखिला रात्रिः त्रियामा कृता ( इव ) / टीका - श्वः आगामिदिवसे प्रियम प्रियतमम् नलम् आप्तुम् प्राप्तुम् उद्धरा उत्कण्ठिता धी: बुद्धिः मन इत्यर्थः ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतायाः (ब० वी० ) नया म्रा: नताश्च उनम्राः उन्नताश्च तः ( कर्मधा० ) कपोलयोः गण्डस्थलयोः (10 तत्पु० ) पाल्यो: तलयोः ( स० तत्पु० ) पुलकैः रोमाञ्चैः रोमाञ्चरूपे इत्यर्थः वेतस्वतीः वेतोयुक्ताः अश्रुणः अश्रूणाम् धारा: प्रवाहान् रयात्
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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