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________________ नवमः सर्गः 451 यदि कदापि त्वाम् याचेत, ( तहि ) हे भीरु ! अस्य जीवितेश्वरा (त्वम् ) कथम् न भवेः हि स भूरुहः मोघयाचनः न ( भवति ) / ____टोका-(हे दमयन्ति ! ) दिवः स्वर्गस्य धवः स्वामी इन्द्र इत्यर्थः निजम् स्वकीयम् अङ्गणम् प्राङ्गणम् एव आलयः स्थानम् ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (व० वी०) प्राङ्गणस्थितमित्यर्थः कल्पश्चासौ शाखी वृक्षः तम् / कर्मधा० ) कल्पवृक्षमिति यावत् यदि चेत् कदापि कदाचित् त्वाम् याचेत भिक्षेत यदीन्द्रः त्वाम् दातुम् कल्पवृक्षं प्रार्थयेतेत्यर्थः तहि हे भीरु ! भयशीले ! अस्य इन्द्रस्य जीवितेश्वरा जीवितस्य प्राणानाम् ईश्वरा स्वामिनी (ष० तत्पु० / कथम् केन प्रकारेण त्वम् न भवे न स्याः बलान् त्वया तत्पत्न्या भाग्यमेवेत्यर्थः हि यतः स सकलकामनापूरकत्वेन प्रसिद्धः भूरूहः भुघि रोहतीति तथोक्तः (उपपद तत्पु० ) वृक्षः मोघा विफला याचा प्रार्थना (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० बी०) न भवतीति शेषः / तस्मिन् कृता याचना त्रिकालेऽपि न व्यर्थीभवति, तस्मात् त्वया स्वयमेवेन्द्रो वरणीय इति भावः // 74 // व्याकरण-शाखिनम् शाखा अस्य सन्तीति शाखा + इन् (मतुबथं) भोर ! बिभेतीति/भी + ( सम्बो० ) भूरुहः भू + रुह + क ( कर्तरि ) / याच्या/याच् + नङ् (भावे ) + टाप् / अनुवाद-"' हे दमयन्ती!) यदि स्वर्गलोक के स्वामी ( इन्द्र) अपने ही आंगन में स्थित कल्पवृक्ष से यदि कदाचित् तुम्हें म तो ओ भीरु ! तुम किस तरह उन ( इन्द्र ) की प्राणेश्वरी नहीं बनोगी? कारण कि उस प्रसिद्ध कल्पवृक्ष से की हुई याचना बेकार नहीं जाती है" // 74 // टिप्पणी-पिछले श्लोक में नलको कवि ने विचित्रवाक्चिशिखण्डिनन्दन कहकर यह जताया है कि वे अपने दौत्य-कर्म को सफल बनाने हेतु नीति के साम, दान, दण्ड, भेद-इन चारों उपायों को प्रयोग में ला रहे हैं। नारायण के अनुसार पिछले सर्ग में नल ने दमयन्ती के प्रति दिक्पालों का हार्दिक प्रेम प्रतिपादन करते हुए पहले 'साम' का प्रयोग किया है इस सर्ग में 'महोमनस्त्वाम्' ( 39 ) से लेकर सात श्लोकों द्वारा उसपर देवों का अनुग्रह जताकर 'दान' का प्रयोग किया है। 'यदि स्वमुबन्धुम्' ( 46 ) से लेकर चार श्लोकों में 'भेद' बताकर अब फिर इस श्लोक से 'भेद' और बाद को 'दण्ड' का प्रतिपादन
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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