________________ नैषधीयचरिते नहीं कर रहा है। और किमु शब्द हम यहाँ क्रमशः निश्चय और प्रश्न के वाचक मान रहे हैं। मल्लिनाथ यहां निदर्शनालंकार कहते हैं, जो ठीक है, क्योंकि स्वर्ग से उतरना कंकड़-पत्थर और स्वर्ग जाना शक्कर पाना है, जो असम्भवद्वस्तु होने से परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव में पर्यवसित हो रहे हैं। हमारे विचार से दो विभिन्न शर्कराओं में अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति भी है। 'गामि' ‘गमी' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / प्रक्षीण एवायुष कर्मकृष्टे नरान्न तिष्ठत्युपतिष्ठते यः / / बुभुक्षते नाकमपथ्यकल्पं धोरस्तमापातसुखोन्मुखं कः // 100 // अन्वय-यः (नाक:) कर्म-कृष्टे आयुषि प्रक्षीणे (सति) एव नरान् उपतिष्ठते, तिष्ठति ( आयुषि ) न ( उपतिष्टते )' कः धीरः आपात-सुखोन्मुखम् अपथ्यकल्पम् तम् नाकम् बुभुक्षते ? टीका-यः नाकः स्वर्ग इत्यर्थः कर्मभिः पुण्यानुष्ठानैः कृष्टे अजिते (तृ तत्पु०) आयुषि जीवितकाले प्रक्षीणे क्षयं गते सति एव नरान् मनुष्यान् उपतिष्ठते प्राप्नोति, तिष्ठति अप्रक्षीणे इत्यर्थः आयुषि न उपतिष्ठते इति शेषः / कः धीरः विद्वान् आपाते प्रारम्भे सुखम् आनन्दःत स्मिन् उन्मुखम् प्रवणम् (उभयत्र सतत्पु०) तत्कालरम्यमित्यर्थः ऊनम् ईषद् अपथ्यम् अनारोग्यकरभोजनम् इत्यपध्यकल्पम् अपथ्यभोजनसदृशमिति यावत् तम्द नाकम् स्वर्गम् बुभुक्षते भोक्तुमिच्छति ? न कोऽपीति काकुः / लौकिक सुखवत् स्वर्गीयसुखान्यपि आपातरमणीयानि परिणामे च दुःखप्रयोजकानि भवन्तीति न विद्वान् तेषु रमते इतिभावः // 10 // __व्याकरण-कर्म क्रियते इति / कृ + मनिन् / कृष्ट कृष् + क्त: ( कर्मणि) उपतिष्ठतं संगतिकरणमें आत्मने / आपातः आ + /पत् + घन ( भावे ) / उन्मुख उत् = ऊर्ध्वं मुखं यस्येति (प्रादि ब० वी०)। पथ्यम् पथि हितम् इति पथिन् + यत् / अपथ्यकल्पम् अपथ्य + कल्पप् / नाकः यास्काचार्यानुसार कम् सुखम्, न कम् इत्यकम् दुःखम् न अकम् दुःखं यत्रेति नाकः / सुप्सुपेति समासः) आनन्दपूर्णो लोकः / बुभुमते भुज् + सन् + लट् / अनुवाद--जो ( स्वर्ग ) कर्मों द्वारा अजित आयु के क्षीण हो जाने पर ही मनुष्यों को मिला करता है, आयु के रहते रहते नहीं मिलता, कौन विद्वान् प्रारंभ में ही ( क्षणभर ) सुख देने वाले, कुपथ्य-जैसे उस स्वर्ग को भोगना चाहता है ? // 100 //