________________ 199 सप्तमः सर्गः अन्वयः-विधाता अस्याः अधिकण्ठम् कवित्व सत्यानि व्यधित। सः अयम् रेखात्रय न्यास-मिषात् अमीषाम् वासाय सीमाः विबभाज। टीका-विधाता ब्रह्मा अस्या. दमयन्त्याः कण्ठे इत्यधिकण्ठम् ( अव्ययीभाव स० ) कवेर्भावः कवित्वं च गानं च प्रिया दादः वचनम् ( कर्मघा० ) च सत्यम् ऋतञ्चेति ०सत्यानि ( द्वन्द्वः) व्यधित रचयामास / ब्रह्मणा दमयन्त्याः कण्ठे कवित्वादयः चत्वारो गुणाः निर्मिता इत्यर्थः / स: अयम् एष विधाता रेखाणां त्रयम् त्रितयम् तस्य न्यासस्य स्थापनस्य मिषात् व्याजात् ( सर्वत्र प० तत्पु० ) अमीषाम् एतेषां चतुर्णा गुणानाम् वासाय पृथक् पृथक् निवासार्थम् सीमाः मर्याद : विबभाज विभक्तवान् / उक्तगुणेषु मा तावद् परस्परं विवादोभूत् इति कृत्वा ब्रह्मा कण्ठे रेखा-त्रयेण तेषां कृते पृथक् पृथक् निवासस्थानानि सीमाबद्धान्यकरोदिति भावः // 67 / / व्याकरण-विधाता विदधाति ( सृजति ) जगत् इति वि+/धा + तृच ( कर्तरि ) / गानम् /7 + ल्युट ( भावे ) / वादः Vवद् + धन (भावे ) / व्यधित वि +धा + लुङ / त्रयम् त्रयोऽवयवा यत्रेति त्रि+ तयप् तयप को अयच् / न्यासः नि + / अस् + घञ् ( भावे ) / वास: वस् + घञ् ( भावे ) / सीमा यास्कानुसार विषीव्यति देशौ इति सिव् + मन् ( पृषोदरादित्वात् साधुः) विबभाज वि + /भज् + लिट् / अनुबाद - ब्रह्मा ने इस ( दमयन्ती ) के कण्ठ में कवित्व, गायन, प्रिय वचन और सत्य ( इन चार गुणों) की रचना को। वह यह ( ब्रह्मा ) तीन रेखाओं के रखने के बहाने इन ( चार गुणों) के निवास हेतु सीभा-विभाग कर गया // 67 // टिप्पणी कण्ठ में पड़ी तीन चौड़ी रेखायें सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार भाग्य रेखायें मानी जाती हैं। इन्हीं रेखाओं से अङ्कित ग्रीवा को कम्बुग्रीवा बोलते हैं ( 'रेखात्रयाङ्किता ग्रीवा कम्बुग्रीवेति कथ्यते' ) इन पर कवि ने कवित्वादि चार गुणों के रहने के लिए स्थानों की सीमा-रेखाओं की कल्पना की है। तीन रेखायें खींचने से च र स्थान बन जाते हैं। भाव यह निकला कि दमयन्ती कवित्व आदि कलाओं से पूर्ण अभिज्ञ और साथ ही कम्बुग्रीवा भी है। कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है, जिसके मूल में मिष शब्द-वाच्य अपहनुति है। 'न्यस्या' 'न्यास', 'धाता' 'धिता' तथा 'मिषां' 'मीषां' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।