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________________ सप्तमः सर्गः आप + क्तः ( कर्मणि ) / मौक्तिकम् मुक्ता एवेति मुक्ता + ठक् ( स्वार्थे ) / प्रब्यक्त प्र + वि + /अङ्ग् + क्त ( कर्मणि ) / अनुवाद - ये कुच हाथी के गण्डस्थलों की श्री ( शोभा, संपदा ) ले रहे हैं (जब कि ) वे इनकी श्री नहीं लेते हैं, क्योंकि वे डर के मारे अपने मोतियों को छिपाये रखे हुए हैं, (जब कि ) ये अपने मोतियों को आभरण के रूप में प्रकट किये हुए हैं // 78 // टिप्पणी-दमयन्ती के कुचों ने हाथी के गण्डस्थलों-कनपटियों की श्री ले ली। वे न ले सके। श्री शब्द में कवि ने श्लेष रखा हुआ है, जिसका एक अर्थ शोभा और दूसरा लक्ष्मी अर्थात् सम्पदा है। शोभा तो उनकी इन कुचों ने लेली है, क्योंकि ये उनसे भी अधिक रमणीय और उन्नत हैं। सौन्दर्य की प्रतियोगिता में विजयी होने के कारण कुचों का हाथी के गण्डस्थलों की श्री ले लेना स्वाभाविक ही है। पराजित शत्रु की श्री सभी विजेता लेते हैं। कुम्भस्थलों के पास दूसरी श्री अर्थात् मोतियों के रूप में सम्पत्ति भी है, जिसे उन्होंने डर के मारे अपने भीतर तुरन्त छिपा दिया कि इसे भी कहीं कुच छीन न लें। ऐसी लोक-प्रसिद्धि है कि हाथियों के मस्तक में कनपटियों के समीप भी मोती हुआ करते हैं ( 'करोन्द्रजीमूतवराहशंखमत्स्यादिशुक्त्युद्भववेणुजानि / मुक्ताफलानि प्रथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि // ) किन्तु कुचों ने मुक्ताहार के रूप में अपनी श्री स्पष्ट प्रकट कर रखी है। उन्हें डर काहे का ? विद्याधर ने यहाँ काव्यलिङ्ग ही कहा है। हमारे विचार से इभ-कुम्भ की श्री इभ कुम्भ में ही है. वह कुचों में नहीं जा सकती, अतः 'श्रीः इव श्री:' यों बिम्बप्रतिविम्ब भाव होने से यहां असम्भवद्वस्तु-सम्बन्धा निदर्शना है। दो विभिन्न श्रियों में अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति और साथ ही कुचों और कुम्भों का चेतनीकरण होने से समासोक्ति भी है। 'आभ्यां' 'कुचाभ्याम्' यों पदच्छेद में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास 'मौक्ति' 'मुक्ता' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। कराग्रजाग्रच्छतकोटिरों ययोरिमौ तौ तुलयेत्कुची चेत् / सर्वं तदा श्रीफळमुन्मदिष्णु जातं वटामप्यधुना न लब्धुम् // 79 / / अन्वयः-करा. कोटिः ययोः अर्थो. तौ इमौ उन्मदिष्णु सर्वम् श्रीफलम् चेत् तुलयेत्. तदा ( तत् ) अधुना वटीम् अपि लब्धुम् ( समर्थम् ) न जातम् /
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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