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________________ सप्तमः सर्गः 229 उत्तमा सर्वाभ्यः उत्कृष्टेति उत् + तमप + टाप सष्टि: सूज + क्तिन् ( भावे ) / अप्सरसः अद्भयः सरन्ति = उद्गच्छन्तीति अप् + सु + असुन्, देखिए रामा०"अप्सु निर्मथनादेव रसात् तस्माद् वरस्त्रियः / उत्पेतुर्मनुज-श्रेष्ठ ! तस्मादप्सरसोऽभवन्" / यह शब्द नित्य बहुवचनान्त होने पर भी कभी-कभी एक वचन में भी प्रयुक्त हो जाता है, देखिए शाकु०-'नियमविघ्नकारिणी मेनका नामाप्सराः प्रेषिता' / प्रेक्षणम् प्र+ईक्ष् + ल्युट ( भावे ) / अनुवाद-क्योंकि इस ( दमयन्ती ) की भौंह चित्र लेखा ( रेखा ) वाली होने से चित्रलेखा ( अप्सरा ) है, नाक तिल ( पुष्प ) से उत्तम होने से तिलोत्तमा ( अप्सरा ) है और जाँघ रचना में रंभा ( कदली ) होने से रंभा ( अप्सरा ) है, इसलिए इस एक ( दमयन्ती ) को देख लिया, तो इसमें अनेक अप्सराओं को देखने का कुतूहल पूरा हो जाता है / / 92 // टिप्पणी-यहाँ से कवि पाँच श्लोकों तक दमयन्ती की ऊरु का वर्णन कर रहा है। दमयन्ती की भौंह नाक और जाँघ पर तत्तत् अप्सराओं का आरोप होने से रूपक और चित्रलेखा आदि शब्दों के विभिन्न अर्थों में श्लेष-मुखेन अभेदाध्यवसाय होने से अभेदातिशयोक्ति है। किन्तु मल्लिनाथ के अनुसार 'अत्रै कस्यानेकात्मकताविरोधाभासनात् विरोधाभासालंकारः स च श्लेषमूल इति संकरः' / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। रम्भापि कि चिह्नयति प्रकाण्डं न चात्मन: स्वेन न चैतदूरू / स्वस्यैव येनोपरि सा ददाना पत्राणि जागर्त्यनयोध्रमेण / / 93 // अन्वयः- रम्भा अपि आत्मनः प्रकाण्डम् स्वेन एतदूरू च न चिह्नयति किम् ? येन सा अनयोः भ्रमेण स्वस्य एव उपरि ( स्वेन एव ) पत्राणि ददाना जागति / टीका-रम्भा कदली अपि आत्मनः स्वस्य प्रकाण्डम् स्तम्भम् स्वेन आत्मना स्वयमेवेत्यर्थः एतस्याः दमयन्त्याः ऊरू सक्थिनी (ष० तत्पु० ) च न चिह्नयति न जानाति किम् ? एष मम स्तम्भः दमयन्त्याः ऊरू न, एतौ तस्याः ऊरू मम स्तम्भौ नेति रम्भायां तयोः परस्परं भेदेन ज्ञानं नास्तीत्यर्थः येन कारणेन सा रम्भा अनयोः दमयन्त्याः ऊर्वोः श्रमेण भ्रान्त्या (10 तत्पु० ) स्वस्य आत्मनः एव उपरि स्वेनैव पत्राणि दलानि अथ च पत्रालम्बनानि आह्वान-लेखानिति यावत्
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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