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________________ 230 नैषधीयचरिते वदाना अर्पयन्ती जागति जागरूका तिष्ठति / रम्भा निजस्तम्भौ दमयन्त्या ऊरू एतौ इति भ्रान्त्या पत्र-रूपेण सौन्दर्य प्रतियोगितार्थम् तयोः कृते आह्वान-पत्रं ददाति, सौन्दर्य प्रतियोगिताय तो आह्वयते इति यावत् , इति भावः // 13 // व्याकरण-प्रकाण्ड: प्रकृष्टः काण्ड इति प्र+ काण्डः (प्रादि तत्पु० ) / चिह्नयति चिह्नवन्तं करोतीति चिह्न + णिच् , मतुप् ०लोप + लट् ( नामधा० ) / अनुवाद-कदली को स्वयं भी अपने स्तम्भों, ( तनों ) और जाँघों की पहचान नहीं है क्या? तभी तो वह इन ( जाँघों) की भ्रान्ति से स्वयं अपने ही ऊपर पत्रों ( पत्तों ) के रूप में पत्रों ( चुनौती-लेखों ) को अर्पित करती हुई जागरूक रह रही है // 93 // टिप्पणी-श्लोक का भाव यह है कि केले के तने और दमयन्ती की जाँघों में परस्पर अत्यधिक समानता के कारण लोगों को पता ही नहीं चल रहा है कि कौन केला है और कोन जाँघ है। इसलिए जाँघों से अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये रखने के लिए केले ने अपने ऊपर भेदक चिह्न पत्ते रख लिये हैं। पत्तों से केले का पृथक्-भाव सिद्ध हो जाता है क्योंकि जाँघों में पत्ते नहीं होते / पत्र शब्द में कवि ने श्लेष रखा हुआ है जिसका दूसरा अर्थ यहाँ पत्रालम्बन अर्थात् चुनौतीपत्र ( Challange-latter ) है। विद्याधर ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है--“तत्र कविः शब्दच्छलमाह--नह्यात्मन उपरि केनापि पत्रं दत्तमस्ति / किन्तर्हि ? विपक्षस्योपरि दीयते / ऊरू च रम्भव / अतो रम्भा किमात्मनः प्रकाण्डमपि न जानातीत्यर्थः" और पत्र शब्द का अर्थ यह किया है-'आत्मनः नारायण भी 'पत्राणि = पत्रालम्बनानि' लिखकर 'अन्योऽपि वादी प्रतिवादिनि दूसरे के ऊपर अपना-अपना उत्कर्ष जमाना चाहते थे तो वे परस्पर प्रतियोगिता के लिए राजदरबार में पत्रालम्बन करते थे कि हममें शास्त्रार्थ हो अथवा हमारी कला-उत्कृष्टता की जांच की जाय / यही बात यहाँ भी समझिये। केले के तने एवं दमयन्ती की जाँघों के मध्य अपने-अपने उत्कर्ष के संघर्ष में केले ने 'पत्रालम्बन जाँघों के प्रति करना था, किन्तु भ्रान्ति से अपने ही तनों को दमयन्ती की जाँघे समझकर उल्टा स्वयं अपने को ही 'पत्र'-चुनौती-पत्र दे बैठा अर्थात् स्वयं को ही ललकार बैठा। पत्रालम्बन में कवि-कल्पना होने से किंशब्द-वाच्य
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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