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________________ सप्तमः सर्गः 187 बनकर पत्ये बना। तिष्ठ माना अभिलापा अर्थ बताने में चतुर्थी ( 'श्लाघ हङ' 11434 ) और /स्था को आत्मने० ('प्रकाशनस्थेयाख्ययवोश्च' 1 / 3 / 3 / 33 ) / अम्बुजिन्यः अम्बुनि ( जले ) जायन्ते इति अम्बु + /जन् - डः, अम्बुजानि अस्याः सन्तीति अम्बुज + इन् ( मतुबर्थ ) + डीप् / बिस्तारित वि + / स्तृ + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / __ अनुवाद-- सूर्य-पति के प्रति कामवासना प्रकट करती हुई कमलिनियां जल-क्रीड़ा के समय, भ्रमर-रूपी आँखों से देखी हुई दमयन्ती की मुख-सुन्दरता को कमल-रूपी हाथ पसारे मांगती रहती है / / 57 // टप्पणी---यहां कवि सूर्य और कमलिनियों पर नायक-नायिका व्यवहार का समारोप कर रहा है। दमयन्ती जब बावड़ी में जल-विहार करती होती है, तो कमलिनियां भ्रमर-रूपी आंखों से उसकी मुख-सुन्दरता को निहारकर चकित हो जाती हैं और चाहने लगती हैं काश! ऐसी ही सुन्दरता हमारे मुखों में भी होती जिससे कि हम अपने भर्ता सूर्य को खूब आकृष्ट करती रहतीं। उन्होंने झट अपने कमल-रूपी हाथ पसार लिये और दमयन्ती से उसके मुख की सुन्दरता की भीख मांगनी शुरू कर दी। यहां भ्रमरों पर नेत्रत्वारोप और कमलों पर हस्तत्वारोप से होने वाले रूपकों का समासोक्ति के साथ संकर है। खलु शब्द से मल्लिनाथ मुख सुन्दरता की भीख की कल्पना में उत्प्रेक्षा मान रहे हैं। इससे दमयन्ती की मुख-सुन्दरता कमल की सुन्दरता की अपेक्षा बहुत ही अधिक है -यह व्यतिरेकालङ्कार-ध्वनि निकल रही है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अस्या मुखेनैव विजित्य नित्यस्पर्धी मिलत्कुङ्कमरोषभासा। प्रसह्य चन्द्रः खलु नह्यमानः स्यादेव तिष्ठत्परिवेषपाशः / / 58 / / अन्वयः--मिलत-कुङ्कुमरोषभासा अस्याः मुखेन एव नित्यस्पर्धी चन्द्रः विजित्य खलु प्रसह्य नह्य मानः एव तिष्ठत्परिवेषपाशः ( कृतः ) स्यात् / टोका-मिलत् लगत् कुकुमम् काश्मीरजम् एव रोषभाः ( उभयत्र कर्मधा० ) रोषस्य कोपस्य भाः कान्तिः (10 तत्पु० ) यस्मिन् तथाभूतेन ( ब० बी० ) अस्याः दमयन्त्याः मुखेन वदनेन एव नित्यं सर्वदा स्पषितुं स्पर्धा कर्तुम् शीलमस्यास्तीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) चन्द्रः चन्द्रमाः विजित्य पराभूय खलु निश्चयेन प्रसह्य बलात् नामानः बध्यमानः एव तिष्ठन् विद्यमानः परिवेषः परिधिः
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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