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________________ षष्ठ सर्गः , शरीर बना देता है, नल भी मणिमय फर्शों में प्रतिबिम्ब डालकर कितने ही शरीर बनाये हुए थे। योगी दूसरे के पुर अर्थात् काय में प्रवेश कर लेता है, नल भी दूसरे ( भीम ) के पुर अर्थात् नगर में प्रवेश किये हुए थे। दोनों में पूरी समानता मिल जाती है अतः उपमा है जिसके मूल में विरोधाभास अलंकार काम कर रहा है। जो वियोगी-योग रहित है, योगी-योगशक्तिवाले के समान है-यह विरुद्ध बात है। वियोगी का विरही अर्थ करके विरोध-परिहार हो जाता है / 'योगी' 'योगी' में यमक, 'पुरं'. 'पर' तथा 'राजा' 'राजा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पुमानिवास्पशि मया वजन्त्या छाया मया पूंस इव व्यलोकि / ब्रुवन्निवाकि मयापि कश्चिदिति स्म स स्त्रैणगिरः शृणोति // 47 // अन्वयः-'वजन्त्या मया पुमान् इव अस्पशि' 'मया पुस इव छाया व्यलोकि' 'मया अपि कश्चित् ब्रुवन् इव अतकि' इति स स्त्रैणगिरः शृणोति स्म। टीका-वजन्त्या विचरन्त्या मया पुमान् पुरुष इव अस्पर्शि स्पृष्टः' 'मया पुसः पुरुषस्य इव छाया प्रतिबिम्बम् व्यलोक दृष्टा / मया अपि कश्चित् कोऽपि पुमान् ववन् वदन् इव अतकिं तकितः' इति एवम् स नल: स्त्रैणाश्च ताः गिरः स्त्रीसम्बन्धिनी: वाणी: शृणोति स्म आकर्ण यति स्म / 47 / व्याकरण-अस्पशि /स्पृश् + लुङ ( कर्मवाच्य ) / व्यलोकि वि + लोक + लुड् ( कर्मवाच्य ) / अतकिं /तक् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / स्त्रैणाः स्त्रीणामिमा इति स्त्री+ नञ् न को ण अथवा स्त्रीणां समूह इति स्त्री + नङ् ( समूहार्थे ) तस्य गिरः (10 तत्पु० ) / शृणोतिस्म 'लट् स्मे' ( 3 / 2 / 118 ) भूत. काल में लट् / अनुवाद -- "जाते हुए मैने पुरुष का-सा स्पर्श किया है" "मैंने पुरुष की-सी परिछाई देखी है", 'मैंने बोलते हुए जैसे किसी पुरुष का अनुमान लगाया है"-इस प्रकार वे ( नल ) स्त्रियों की वाणियाँ सुन बैठे // 47 // टिप्पणी-स्त्रियाँ दमयन्ती को ये बातें कह रही थीं या आपस में ही बोल रही होंगी। यहाँ तीन उपमाओं की संसृष्टि है / शब्दा-लंकार वृत्त्यनुप्रास है / अम्बां प्रणत्योपनता नताङ्गी नलेन भैमी पथि योगमाप। स भ्रान्तिभैमीषु न तां व्यविक्त सा तं च नादृश्यतया ददर्श // 48 //
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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