________________ नवमः सर्गः 469 हृदयम् ज्वलति / अद्य अपि मृषा सुखासिकाम् न जहासि / इदम् तव ईदृशम् आलस्यम् अपूर्वम् ( अस्ति)। टीका-हे जीवित ! प्राणाः ! किम् कस्माद्धेतो: विलम्बसे विलम्बं करोषि ? द्भुतम् शीघ्रम् द्रव गच्छ। अदः इदम् ते तव निकेतनम गृहम् हृदयम् स्वान्तम् ज्वलति दह्यते / अद्य अपि गृहे दह्यमानेऽपि मृषा मुधा सुखेन आसिकाम् सुखपूर्वकम् आसनम् अवस्थानमिति यावत् (तृ० तत्पु०) न जहासि न त्यजसि, गृहं ज्वलति, त्वञ्च निश्चितस्तिष्ठसि, न पलायसे इत्यर्थः / इदम् एतत् दह्यमाने गृहे सुखेनावस्थानम् तव ते ईदृशम् एवंविधम् आलस्यम् अलसता अपूर्वम् विलक्षणम् अस्तीति शेषः / आलस्यं विहाय हे जीवित ! शीघ्र पलायस्व अन्यथा त्वमपि धक्ष्यसे इति भावः // 90 // व्याकरण- जीवितम्/जीव + क्त ( भावे ) / द्रव/द्र + लोट् म० पु० / निकेतनम् निकेतन्ति ( निवसन्ति) अत्रेति नि+/कित + ल्युट (अधिकरणे ) / आसिकाम् आस् + ण्वुल, ( भावे ) वु को अक + टाप, इत्व / आलस्यम् अलसस्य भाव इति अलस + ष्यत्र / अनुवाद-"ओ प्राण ! क्यों देर कर रहे हो? शीघ्र भाग जाओ। तुम्हारा घर यह हृदय जल रहा है। अभी भी तुम आराम से बैठे रहना नहीं छोड़ रहे हो / तुम्हारा यह ऐसा आलस्य बड़ा अनोखा है" // 90 // टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि यदि हृदय से प्राण निकल जाए, तो उसकी सारी वेदना मिट जाएगी। प्राणों के रहते-रहते ही तो वेदना होती है। विद्याधर प्राणों में अधिकता बताने से यहाँ व्यतिरेकालंकार कह रहे हैं। यूं तो सभी लोग घर में आग लग जाने के समय शिर पर पैर रखकर भाग जाया करते हैं, किन्तु इधर ये प्राण हैं, जो आराम से बैठे हुए हैं, भाग जाने का नाम तक नहीं लेते। यहाँ हमें रोम के उस सम्राट की याद आ जाती है जिसके विषय में यह लोकोक्ति ही चल पड़ी हैं-Nero was fiddling when Rome was burning अर्थात् इधर रोम जल रहा था, उधर नीरो वीणावादन में मस्त था / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 90 // दृशौ ! मृषा पातकिनो मनोरथाः कथं पृथु वामपि विप्रलेभिरे। . - प्रियश्रियः प्रेक्षणघाति पातकं स्वमश्रुभिः क्षायलतं शतं समाः / / 91 //