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________________ 1 नैषधीयचरिते अथवा माधवे उपेन्द्र विष्णी इत्यर्थः देवरि देवरे भर्तुः अनुजे इत्यर्थः ( श्याला: स्युतिरः पत्न्याः स्वामिनो देवदेवरी इत्यमरः ) तथा यातरि भर्तृभ्रातृजायायाम् ('भार्यास्तु भ्रातृवर्गस्य यातरः स्युः परस्परम्' इत्यमरः ) सल्यां सखी. रूपायाम् श्रियाम् लक्ष्म्याम् यत् श्रेय: आनन्द इति यावत् भविष्यति, तत् सर्वम् भानयस्व विचारय / इन्द्रस्य भर्तृत्वेन वरणे त्वं विष्णोः लक्ष्म्याश्चापि साहचर्यसुखमनुभविष्यसीति भावः // 83 // व्याकरण-विहारे वि + Jह + घन ( भावे ) / देवरि दीव्यति (क्रीडति) भ्रातृपल्या सहेति /दिव् + ऋ = देवा तस्मिन् ( औणादिक ) / भाविनी भाबयितुं शीलमस्या इति भू + णिच् + डीप / भावयस्व भू+ णिच / लोट / / __ अनुवाद-ओ समझदार ( दमयन्ती)। मन्दाकिनी और नन्दन वन में बिहार के समय इन्द्र भर्ता, विष्णु देवर और सखी-रूप लक्ष्मी देवरानी के साथ जो आनन्द आयेगा, उसका तो मन में खयाल करो / / 83 / / टिप्पणी-विष्णु के इन्द्र का अनुज होने के सम्बन्ध में सर्ग 5 श्लोक 38 देखिए, हम पीछे देख आये हैं कि इन्द्र अपने साथी अग्नि आदि को टरकाने के लिए जिस तरह गुह्य भाषा को प्रयोग में लाया था, वैसे ही उसकी कुट्टनी भी कर रही है। बह भी अन्य देवतानों को टरकाने के लिए मन्दाकिनी और नन्दनवन-विहार के आनन्द का प्रलोभन दे रही है। अग्नि आदि के वरण से उसे केवल मन्दाकिनी में ही जलविहार का आनन्द मिल सकेगा, नन्दन वन में विहार का नहीं। इसी तरह अन्य देवताओं के साथ उसे विष्णु देवर और लक्ष्मी देवरानी के साहचर्य का आनन्द भी नहीं मिलेगा, इसलिए ये दोनों बातें अन्य देवताओं को छोड़कर इन्द्र के वरण से ही प्राप्त हो सकती है, अन्यथा नहीं / विद्याधर यहाँ रूपक कह रहे हैं, क्योंकि लक्ष्मी पर सखीत्वारोप हो रखा है, किन्तु मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ समुच्चयालंकार का एक भेद विशेष है। समुच्चय का यह भेद-विशेष वहाँ होता है, जहाँ क्रिया और गुण का योगपद्य हो / यहाँ विहरण-क्रिया के साथ-साथ बिष्णु का देवरत्व और लक्ष्मी का यातृत्व गुण भी बताया गया है। शब्दालंकारों में 'देवे' 'देव' 'श्रेयः' "श्रियां' और 'भावि' 'भाव' में छेक 'धवे' 'धवे' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। रज्यस्व राज्ये जगतामितीन्द्राद्याच्ञाप्रतिष्ठां लभसे त्वमेव / लघूकृतस्वं बलियाचनेन तत्प्राप्तये वामनमामनन्ति / / 84 //
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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