________________ षष्ठः सर्गः प्रणालीत्व और संवाद पर पीयूषत्व के आरोपों से होने वाले रूपक के साथ संसृष्टि है, संकर नहीं, जैसा विद्याधर मान रहे हैं / रूपक भी उक्त आरोपों में परस्पर कार्य कारण भाव होने से परम्परित है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। तां कुण्डिनाख्यापदमात्रगुप्तामिन्द्रस्य भूमेरमरावतीं सः। मनोरथः सिद्धिमिव क्षणेन रथस्तदीयः पुरमाससाद // 4 // अन्वयः-तदीयः स रथः भूमेः इन्द्रस्य कुण्डिना...... "गुप्ताम् अमरावतीम् ताम् पुरम् मनोरथः सिद्धिम् इव क्षरणेन आससाद / टीका-तस्य अयम् इति तदीयः तत्सम्बन्धी नलीय इत्यर्थः स रथः स्यन्दनः भूमेः क्षितेः इन्द्रस्य मघोनः भीमस्येत्यर्थः (10 तत्पु०) कुण्डिनम् इति या आख्या नाम ( कर्मधा० ) तस्याः पदम् वाचकशब्दः (10 तत्पु० ) . एवेति तन्मात्रम् तेन गुप्ताम् प्रच्छन्नाम् (तृ० तत्पु०) अमरावतीम् इन्द्रपुरी ताम् प्रसिद्धाम् पुरम् पुरीम् मनोरथः तपोवताम् अभिलाषः सिद्धिम् निष्पत्तिम् पूर्तिमिति यावत् इव क्षणेन पलेन आससाद प्राप्तवान् , क्षणमात्रे कुण्डिनपुर्या प्राप्तो नलरथस्य अतिवेगवत्त्वं ध्वन्यते // 4 // व्याकरण-तदोयः तत् + छ, छ को ईय / आख्या आख्यायतेऽनयेति आ +ख्या + अ + टाप् / गुप्त गुप् + क्तः ( कर्मणि)। सिद्धिः/सिध् + क्तिन् ( भावे ) / आससाद आ + /सद् + लिट् / अनुवाद - उस ( नल ) का वह रथ पृथिवी के इन्द्र (भीम) की कुण्डिन नाम-मात्र से छिपी हुई अमरावती-रूप प्रसिद्ध राजधानी को पल भर में इस तरह प्राप्त हो गया जैसे ( तपस्वियों का) मनोरथ क्षणभर में सिद्धि को प्राप्त हो जाया करता है // 4 // . टिप्पणी-यहां भीम नरेश पर इन्द्रस्व का और कुण्डिनपुरी पर अमरावतीत्व का आरोप होने से रूपक है जो परम्परित के भीतर आता है / रूपकं के साथ 'सिद्धिमिव' से बनने वाली उपमा की संसृष्टि है। शब्दालङ्कार वृत्यनुप्रास है। भैमोपदस्पर्शकृतार्थरथ्या सेयं पुरीत्युत्कलिकाकुलस्ताम् / नपो निपीय क्षणमोक्षणाभ्यां भशं निशश्वास सुरैःक्षताशः॥ 5 // अन्वयः-'भैमी..... रथ्या सा इयम् पुरी' इति उत्कलिकाकुल: नृपः ताम् ईक्षणाभ्याम् क्षणम् निपीय सुरैः क्षताशः ( सन् ) भृशम् निशश्वास /