SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टमः सर्गः 345 टीका-अलङ्कृतः सुशोभितः आसन्नः समीपवर्ती भूविभागः ( उभयत्र कर्मधा० ) भुवः विभागः प्रदेशः ( 10 तत्पु० ) यः तथाभूतैः ( ब० वी० ) नातिदूरवर्तिभूतले स्थितरित्यर्थः ते: अमरैः इन्द्रादि-देवः अयम् एषः जनः अहमित्यर्थः भवत्याम् त्वां प्रति संदेश: वाचिकम् एवेति संदेशमयानि अक्षराणि संदेशात्मकशब्दानित्यर्थः निक्षिप्य अर्पयित्वा जङ्गमः चलन् यः लेख: पत्रम् ( कर्मधा० ) तस्य लक्ष्मीम् शोभाम् अवापितः प्रापितः / इन्द्रःदीनां सन्देशं गृहीत्वा जङ्गमपत्ररूपेण स्वत्समीपमहमागतोऽस्मीति भावः / / 89 // __ व्याकरण-आसन्न आ + /सद् क्त, ( कर्तरि ) त को न / विभागः वि+भज् + घञ् / जङ्गम पौनःपुन्येन अतिशयेन वा गच्छतीति /गम् + यङ्, धातु को द्वित्व और यङ् का लोप जंगमीतीति /जङ्गम् + अच् ( कर्तरि / सन्देशमय सन्देश + मयट् ( स्वरूपार्थे ) / अवापितः अव + /आप + णिच + क्त ( कमणि ) / अनुवाद- "पास ही में भू-भाग को अलंकृत किये हुए उन देवताओं ने तुम्हारे प्रति इस जन को ( = मुझे ) सन्देश मय शब्द देकर चलते-फिरते पत्र की शोभा प्राप्त करवाई है" // 89 ! टिप्पणी-भाव यह है कि भू पर उतरकर देवताओं ने मेरे हाथ लिखित पत्र तो तुम्हारे हेतु कोई नहीं दिया है किन्तु हाँ, मेरे पास मौखिक सन्देश भेजा है अर्थात् मुझे ही अपना चलता-फिरता, साढ़े तीन हाथ का लम्बा चौड़ा सन्देशपत्र बनाया है। इसलिए उनकी तरफ से मैं प्रार्थना कर रहा हूँ कि तुम उनकी मनोकामना पूरी करो। यहाँ 'अयं जनः' पर 'जङ्गमलेखत्व' का आरोप होने से रूपकालंकार है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। एकैकमेते परिरभ्य पीनस्तनोपपीडं त्वयि संदिशन्ति / त्वं मर्छतां नः स्मरभिल्लशल्यैदे विशल्यौषधिवल्लिरेधि // 90 / / अन्वयः-एते एकैकम् पीनस्तनोपपीडम् परिरभ्य त्वयि सन्दिशन्ति"( हे दमयन्ति ! ) त्वम् स्मर-भिल्लशल्यैः मूर्च्छताम् नः मुदे विशल्यौषधिवल्लिः एधि'। टोका-एते इन्द्रादिदेवाः एकैकम् प्रत्येकम् पीनौ पीवरौ स्तनौ कुची तयोः ( कर्मधा० ) उपपोउच आत्मानं संघदृय्येति व्पपीडम् परिरभ्य आश्लिष्य गाढमा.
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy