________________ नवमः सर्गः 475 (ब० वी०) स प्रसिद्धः वः युष्माकं कृपा अनुग्रहः एव अर्णवः समुद्रः (कर्मधा०) केन पपे पीतः ? युष्माकं स्वभक्तेषु अपारः प्रसादो वर्तते / यदि तस्य लध्वंशोऽपि मयि भवेत् तर्हि मम प्रियविरह-कृत संताप: क्षणेनेवोपशाम्येत इति भावः / वः युष्माकम् संकल्पस्य इच्छायाः यः कण। लध्वंशः तस्य श्रमेण प्रयासेन ( उभयत्र 10 तत्पु० ) आशु शीघ्रम् क्षणेनैवेत्यर्थः मत्तः उत्तमा मदपेक्षयाधिकसौन्दर्यशालिनी (पं० तत्पु० ) कोटि नारीणां कोटिमंख्या मुदे वः प्रातये किम् न उदेति जायते ? अपितु उदेत्येवेति काकुः / व: इच्छामात्रेण मदधिकाः कोटिशः सुन्दर्यो भवतां सेवायां समुपस्थास्यन्ते, मदभिलाष-हठस्त्यज्यतामित्येव वः कृपया मयि भवितव्यमिति भावः // 95 // व्याकरण-सुराः इसके लिए सगं 5 श्लोक 34 देखिए / व्ययः वि + Vइ+ अच् ( भावे) / शक्त/शक् + क्त (कतरि) / अर्णवः अर्णासि (जलानि) अस्मिन् सन्तीति अणंस् + व, स का लोप / उत्तमा उत् ( अतिशेयन ) उत्कृष्टा इति उत् + तमम् ( प्रादि स० ) / मुदे/मुद् + क्विप ( भावे ) च / __ अनुवाद-“हे देवता लोगो ! मेरा तीव्र (विरह- ) सन्ताप मिटा देने में सशक्त बिन्दु-कण वाला आप लोगों का कृपारूपी सागर कौन पी गया है ? आप लोगों के लेशभर इच्छा के श्रम से मुझसे कहीं अधि: ( सुन्दर ) करोड़ों स्त्रियाँ / तत्काल ( आप लोगों के ) आनन्द-प्रमोद हेतु उठ खड़ी नहीं हो जाएंगी क्या ? // 95 / / टिप्पणी-जैसे अगस्त्य ऋषि समुद्र पो गए थे। उसी तरह तुम्हारा कृपासमुद्र किसने पी लिया, जो आप लोग सूखे-सूखे हुए पड़े हो? मुझपर इतनी थोड़ी-सी कृपा कर दो कि मुझे वरने की अभिलाषा की हठ त्याग दो। तुम्हारे चाहने मात्र की देरी है, करोड़ों सुन्दरियाँ तुम लोगों पर कुर्बान हो जाएंगी। मुझ पर ही क्या शहद लगा हुआ है / कृपा पर अर्णवत्वारोप में रूपक है / 'मुदे" 'मदु' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यन्प्रास हे // 95 / / ममैव वाहर्दिनमश्रुर्दिनैः प्रसह्य वर्षासु ऋतौ प्रसञ्जिते ! कथं नु शण्वन्नु सुषुप्य देवता भवत्वरण्येरुदितं न मे गिरः // 96 // अन्वयः-वा अहर्दिवम् मम एव अश्रु-दुदिनैः प्रसह्य वर्षासु ऋतौ प्रसञ्जिते ( सति ) देवताः सुषुप्य मे गिरः कथम् नु शण्वन्तु, ( अतः मे गिरः) अरण्येरुदितम् ( कथम् ) न भवतु ?