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________________ षष्ठः सर्गः 105 ईश्वर के अधीन है, इसलिए ऐसा ( मुझ जैसा ) जन (कैसे भी) प्रश्न पूछे जाने के योग्य है क्या ? ( बिलकुल नहीं) // 102 // टिप्पणी-यहाँ कवि 'अनादिः शरीरसर्गः' इस दार्शनिक सिद्धान्त के अनुसार जीवात्मा का फिर-फिर शरीर धारण करना, और पूर्वजन्मानुष्ठित सदसत्कर्मों के फल-स्वरूप सुख दुःख बुद्धि आदि प्राप्त करना मान रहा है। हम कर्माधीन हैं और कर्मों से प्रेरित होकर ही सब कुछ करते हैं / नदी की तरह इन कर्मों का ऐसा सशक्त प्रवाह है, कि हम उससे बाहर नहीं निकल सकते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो जगत् को सभी क्रियाओं के भीतर ईश्वर का हाथ मानते हैं। वही संसार-चक्र चला रहा है, इसलिए कवि 'ईश्वरे वा' में उनका भी पक्ष लेकर सांसारिक जीव को 'परायत्त' ही बता रहा है। ऐसी स्थिति में दमयन्ती की सखियाँ यदि उससे 'तुम नल में अनुरक्त न होकर इन्द्र में क्यों अनुरक्त नहीं होती?' इत्यादि बातें पूछे या उलाहना दें, तो यह उक्त दार्शनिक सिद्धान्त के आलोक में मूर्खता ही समझें / नल के साथ दमयन्ती का पूर्व जन्म सम्बन्ध है, इन्द्र के साथ नहीं है। वह बेचारी विवश है। विद्वान का भी यही कहना है-'किं करोति नरः प्राज्ञः प्रेर्यमाणः स्वकर्मभिः / एवं किं करोति सुधीरस्मिन् ईश्वराज्ञावशंवदः' 'ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा' इत्यादि / नल के प्रति ही अनुरक्त होने का कारण बताने से यहाँ काव्य लिङ्ग अलंकार है। 'योग' 'योग्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अनादिधावि-विद्याधर और चाण्डूपंडित अनादिधाबिश्व० पाठ देते हैं अर्थ करते हैं-'आदि दधातीत्यादिधा, न आदिधा अनादिधा आदिरहिता या विश्व-परम्परा / नित्यं नियत्या परवत्यशेषे कः संविदानोऽप्यनुयोगयोग्यः / अचेतना सा च न वाचमहँद्वका तु वक्त्रश्रमकर्म भुङ्क्ते // 103 // अन्वयः-अशेषे ( जने ) नित्यम् नियत्या परवति ( सति ) संविदानः अपि कः अनुयोग-योग्यः ? सा च अचेतना (अतः) वाचम् न अर्हेत् / वक्ता तु वक्त्रश्रम-कर्म भुङ्क्ते / टोका-अशेषे न शेषो यस्य तथाभूते ( नञ् ब० वी० ) निखिले जने इति शेषः नित्यम् सर्वदा यथा स्यात्तथा नियत्या अदृष्टेन पूर्वजन्मसंस्कारेणेति यावत् परवति पराधीने सति, निखिलं प्राणिजगत् दैवाधीनमित्यर्थः एवं सति संविदानः विद्वान् अपि क: अनुयोगस्य कस्मादेतत् करोषि एतच्च न करोषीत्याद्यात्मक
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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