Book Title: Naishadhiya Charitam 03
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass
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________________ परिशिष्टम् -3 दमयन्ती तु यं हंसं समुपाधावदन्तिके / स मानुषीं गिरं कृत्वा दमयन्तीमथाब्रवीत् // 26 // "दमयन्ति ! नलो नाम निषधेषु महीपतिः / अश्विनोः सदृशो रूपे न समास्तस्य मानुषाः // 27 // कंदर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत् . स्वयम् / तस्य वै यदि भार्या त्वं भवेथा वरवणिनि / / 28 / / सफलं ते भवेजन्म रूपं चेदं सुमध्यमे / वयं हि देवगन्धर्वमनुष्योरगराक्षसान् // 29 / / दृष्टवन्तो न चास्माभिदृष्टपूर्वस्तथाविधः / त्वं चापि रत्न नारीणां नरेषु च नली वरः // 30 // . विशिष्टया विशिष्टेन संगमो गुणवान् भवेत् / एवमुक्ता तु हंसेन दमयन्ती विशांपते ! // 31 // अब्रवीत् तत्र तं हंसं त्वमप्येवं नले वद'। तथेत्युक्त्वाण्डजः कन्या विदर्भस्य विशांपते / पुनरागम्य निषधान् नले सवं न्यवेदयत् // 32 // दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा वचो हंसस्य भारत ! / ततः प्रभृति न स्वस्था नलं प्रति बभूव सा // 33 // ततश्चिन्तापरा दीना विवर्णवदना कृशा / बभूव दमयन्ती तु निःश्वासपरमा तदा // 34 // ऊर्ध्वदृष्टियानपरा बभूवोन्मत्तदर्शना / पाण्डुवर्णा. क्षरणेनाथ हृच्छयाविष्टचेतना // 35 // न शय्यासनभोगेषु रति विन्दति कहिचित् / न नक्तं न दिवा शेते हाहेति रदती पुनः // 36 // तामस्वस्थां तदाकारां सख्यस्ता जजुरिङ्गितः / ततो विदर्भपतये दमयन्त्याः सखीजनः // 37 / / न्यवेदयत् तामवस्थां दमयन्तीं नरेश्वरे / तच्छ्रुत्वा नृपतिर्भीमो दमयन्तीं सखीगणात् // 38 // चिन्तयामास तत् कार्य सुमहत् स्वां सुतां प्रति / किमर्थ दुहिता मेऽद्य नातिस्वस्थेव लक्ष्यते / / 39 //

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