________________ 542 नैषधीयचरिते टिप्पणी-चित्र के सामने खड़ी दमयन्ती कामोन्माद में कभी-कभी मधुजैसी मधुर वाणी सुना देती थी, लेकिन होश में उसे जब लाज आ दबोचती, तो वह चुप हो जाती थी। लाज से होने वाला मौन बना टापू, जहाँ मधुरवाणीरूपी नदी टकरा कर कुछ रुक जाती थी। वाणी और सारणी में अभेदाध्यवसाय होने से अतिशयोंक्ति है, जिसका मौन पर हुए अन्तरीपत्व के आरोप में बनने वाले रूपक के साथ संकर है। पदे-पदे में श्लेष है, वाणी की तरफ अर्थ है शब्द-शब्द में और नदी की तरफ अर्थ है स्थान-स्थान में। नदी में टापू स्थान-स्थान में हुआ करते हैं। आलेख्यगतेऽपि में अर्थापत्ति है पदे-पदे में छेक, 'सार, सार' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / उत्तरार्ध में तीसरे पाद के अन्त में 'पिणी' के साथ चौथे पाद के अन्त में "रणी" के स्थान में रिणी न होने से अल्ल्यानुप्रास होते होते रह गया है। आलेख्यगतेऽपि-इससे स्पष्ट हो रहा है दमयन्ती ने अमूर्त (चित्रगत ) नल के आगे ही 'मधु-सारणी' वहाई, न कि प्रत्यक्ष हुए मूतं नल के सामने, जिससे अब भेंट हो रही है। यदि कहा जाय कि नल के साथ प्रत्यक्ष भेंट के समय में ही सखी-सहित दमयन्ती उन्हें छोड़ फिर चित्र की मोर गड़ गई और तव उसके आगे पूर्वोक्त हो श्लोकों को कह बैठी और फिर वापस आकर सामने खड़ी हो गई, तो यह सरासर असंभव बात होगी // 155 // चाण्डालस्ते विषमविशिखः स्पृश्यते दृश्यते न __ ख्यातोऽनङ्गस्त्वयि जयति यः किनु कृत्ताङ्गुलीकः / कृत्वा मित्रं मधुमधिवनस्थानमन्तश्चरित्वा सख्याः प्राणान्हरति हरितस्त्वद्यशस्तज्जुषन्ताम् // 156 // अन्वयः-( हे नल ! ) ते विषम-विशिखः चण्डालः किम् नु ? (अत एव ) यः न स्पृश्यते, न ( च ) दृश्यते, त्वयि जयति ( सति ) कृत्ताङ्गुलीकः अनङ्गः (च) ख्यातः (अस्ति)। अधिवनस्थानम् मधुम् मित्रं कृत्वा, अन्तः चरित्वा सख्याः प्राणान् हरति, तत् हरितः त्वद्न्यशः जुषन्ताम् / टीका--(हे नल !) ते तव विषमा न समाः पञ्चेत्यर्थः विशिखाः बाणा: ( कर्मधा० ) थस्य तथाभूतः (ब० वी० ) पञ्चबाणः कामः इति यावत् चण्डालपक्षे विषमाः क्रूराः भीषणा इत्यर्थः चण्डाल: अन्त्यजविशेषः किम नु संभाव.