________________ नैषधीयचरिते ब्रजन्तु ते तेऽपि वरं स्वयंवरं प्रसाद्य तानेव मया वरिष्यसे / न सर्वथा तानपि न स्पृशेद्दया न तेऽपि तावन्मदनस्त्वमेव वा // 154 // अन्वयः-ते ते अपि वरम् स्वयंवरम् वजन्तु। तान् एव प्रसाद्य मया ( त्वम् ) वरिष्यसे / दया तान् अपि सर्वथा न स्पृशेत् ( इति ) न / ते अपि तावत् मदनः त्वम् एव वा न ( भवन्ति ) / टोका-ते ते इन्द्रादयो देवा अपि स्वयंवरम् ब्रजन्तु आगच्छन्तु वरम् / तान् एव देवान् प्रसाध आराध्य प्रसन्नीकृत्येत्यर्थः मया त्वम् वरिष्यसे त्वरणं करिष्यते / बया कृपा तान् देवान् अपि सर्वथा सर्वप्रकारेण न स्पृशेत् इति न, दया तानवश्यं स्प्रक्ष्यतीत्यर्थः यतः ते देवा अपि तावत् वस्तुतः मदनः कामः त्वम् एव वा न भवन्तीतिशेष: देवा दयाद्रुता भविष्यन्त्येव / न खलु ते मदन इव स्वमिव च निर्दयाः सन्तीति भावः // 154 // __व्याकरण-स्वयंवरः स्वयं वृ + अप् ( भावे ) / प्रसाद्य प्र+V सद् + णिच् + ल्यप् / अनुवाद-"अच्छा है, वे देवता भी-स्वयंवर में आजावें। उन्हें ही प्रसन्न कर के मैं तुम्हें वर लूंगी। दया उन्हें भी सर्वथा न छूए-यह नहीं, ' क्योंकि ) वे भी वस्तुतः मदन और तुम ही नहीं है" // 954 // टिप्पणी-काम और तुम-दोनों ही मुझपर बड़े निर्दयी बने हुए हों। देवता इतने निर्दयी नहीं हो सकते / स्वयंवर में आए हुए उन्हें मनाकर मै प्रसन्न कर लूगी और उन्हीं के सामने तुम्हें वर लूंगी। विद्याधर 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः कह रहे हैं। हमारे विचार से देवताओं पर मदनत्व और नलत्व के आरोप में रूपक है / 'परं' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / वजन्तु ते सुरापराध. स्तव-जैसाकि हण्डीकी ने भी संकेत किया है, हमारे विचार से उक्त दोनों श्लोकों में कवि की एक बड़ी असंगति दीख रही है। हम देखते हैं कि 144 से 154 तक के जो श्लोक दमयन्ती ने नल के चित्र को लक्ष्य करके कहे थे, उन्हें ही उसकी सखो ने यहाँ नल के सामने दमयन्ती की ओर से उत्तर रूप में दोहराया है। और यह घटना बहुत पहले की है जब कि दमयन्ती को यह पता भी नहीं था कि नल बाद को देवदूत बनकर उसके अन्तःपुर में आएंगे और वह उन्हें अपने सामने देखेगी। ऐसी स्थिति में दमयन्ती का उस समय नल