________________ नवमः सर्गः तव सुरेषु देवेषु देवान् प्रतीत्यर्थः अपराध: आगः कियान् कियत्परिमाणः, न भूयान अत्यल्प एवेत्यर्थः मखेषु पत्नीभूतया मया सह क्रियमाणेषु यज्ञेषु तर्पणात तृप्तिकारणात् प्राणनादित्यर्थः मुखे लज्मा पा तया ( स० तत्पु० ) एव ते इन्द्रादयो देवा इदम् तान् प्रति तवापराधित्वम् गिरा वाण्या अपि न वक्ष्यन्ति कथयिष्यन्ति हृदये न धरिष्यन्तीति किमु वक्तव्यम् / अयं भावः-मया स्वेच्छयव त्वम् वृतः त्वया चाहमङ्गीकृता-इत्यत्र तव न कोऽपि महानपराधः, त्वया तेषां दूत्यै स्वकर्तव्यं पूर्णतया नियूंढम् / विवाहानन्तरं यज्ञेषु अस्माभिः प्रीणितास्ते देवाः लज्जाकारणात् त्वदेतत्त च्छापराधकृते न किमपि कथयिष्यन्ति // 153 // व्याकरण- स्वयंवरायाम् स्वयं वृणोतीति स्वयं/वृ+ अच् ( कर्तरि)। अनुकम्प्रता अनुकम्पते इति अनु + /कम्प + र( ताच्छील्ये), अनुकम्प्रस्य भाव इति अनुकम्प्र + तल् + टाप् / अनुवाद- 'अथवा स्वयं ही तुम्हारा वरण करने वाली मेरे ऊपर तुम्हारी कृपा हो, तो यह देवताओं के प्रति तुम्हारा कितना अपराध होगा? ( बहुत तुच्छ ) / यज्ञों में उन्हें तृप्त कर देने के कारण अपनी नाक बचाने के लिए ही वे तुम्हारा यह ( तुच्छ अपराध ) वाणी से भी नहीं बोलेंगे" // 153 // टिप्पणी-देवदूत बनकर अपनी तरफ से तुमने उन्हें ही वरने के लिए मुझे मनाने में कोई कसर नहीं उठा रखी, अपना पूरा 2 बर्तव्य निभाया लेकिन मैं ही उन्हें न वर कर स्वेच्छा से तुम्हें वर रही हूं और तुम मुझे अङ्गीकार करन का अनुग्रह दिखाओ तो भला इसमें तुम देवताओं का कौन-सा वड़ा अपराध कर रहे हो ? कुछ भी नहीं। देवताओं का यह सोचना कि हमारा दूत बन कर गए हुए इसने अपना ही काम बनाया, सरासर गलत है ! यदि इसे थोड़ा बहुत अपराध अपना तुम समझो भी तो यज्ञों द्वारा उन्हें हम प्रसन्न कर देंगे। संसार में देखते हैं कि किसी की थोड़ी-सी गलती करके यदि हम उसका बड़ाभारी उपकार करते हैं तो हमारी वह थोड़ी-सी गलती एकदम नगण्य हो जाती है। बड़े-बड़े यज्ञ रचकर हम देवताओं का बड़ा उपकार करते रहेंगे जिससे प्रसन्न हुए वे तुम्हारी थोड़ी-सी गलती को भूल जाएंगे एवं हम पर सदा प्रसन्न रहेंगे। इसलिए तुम मुझे अंगीकारकरो / यहाँ काव्यलिङ्ग, गिरापि में अर्थापत्ति अलधार है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 153 //