________________ यावत् अवेहि जानीहि, न तु देवम् हि यतः स कामः स्वस्य आत्मनः कामस्येत्यर्थी काण्डान् पुष्परूपबाणान् (ष० तत्पु०, करोतीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु०) ('काण्डोऽस्त्रीदण्डबाणा' इत्यमरः) मधोः वसन्तस्य सखा मित्रम् अस्तीति शेषः / बाणकारो हि चण्डालो भवति; वसन्तः कामाय ( पुष्परूपान् ) बाणान निर्माय ददाति, वसन्ते पुष्पबहुत्वात् / चण्डालवसन्तस्य सखा च कामः, तस्मात् चण्डालसंसर्गहेतोः कामस्यापि चण्डालत्वमेव यथोक्तम् शास्त्रेषु-'तत्संसर्गी च पञ्चमः' ( चण्डाल: ) तस्मात् नल ! स्वया कामो मार्यतामेवेति भावः // 151 // व्याकरण-धातुकम् हन्तीति हन् + उकन, 'न लोका० ( 2 / 3 / 69 ) से षष्ठो-निषेध / गौरवात् गुरोः भाव इति गुरु + अण् / काण्डकारात् काण्ड + Vकृ + अण् ( कर्मणि ) / अनुवाद-"( मैं ) तुम्हारी है। मुझे मार डालने वाले मठे देवता काम को भी ( सच्चे ) देवताओं का गौरव देने के कारण तुम छोड़े जा रहे हो / जो प्रिय ! उस काम को तुम चण्डाल समझो, क्योंकि उसके लिए बाण बनाने वाला वसन्त उसका सखा है" / / 151 // टिप्पणी-वसन्त काम का मित्र कहा गया है, जो काम हेतु बाण बनाया करता है। बाण लोहार बनाते हैं, जो चण्डाल जाति में आते हैं। इस लिए कामको भी चण्डाल ही समझो। वह यों ही अपने को झूठमूठ देवता कहलवाता है। जो निरपराध स्त्रियों का वध करता है, वह देवता काहे का, अतः उसे मार डालो और वह इसलिए भी कि मैं जो तुम्हारी प्रिया हूँ, उसी को मार रहा है। तुम्हें अपनों की तो रक्षा करनी ही चाहिए। तुम कैसे नाथ हो? विद्याधर यहाँ भी 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः' कह रहे हैं / सम्भवतः इसलिए कि कामदेव का देवों से अभेद होने पर भी भेद बताया गया है। काव्यलिङ्ग स्पष्ट ही है। 'मरं' 'मर' में छेक, 'नङ्गमङ्ग' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 151 // लघी लघावेव पुरः परे बुधविधेयमुत्तेजनमात्मतेजसः / अन्वयः-बुधैः पुरः लघी लघौ एव परे आत्म-तेजसः उत्तेजनम् विधेयम् खलु ज्वलनः तृणे ज्वलन् क्रमात् करीष"लम् तृणेढि /