________________ नवमः सर्गः प्रकाश्यते इति प्र + /काश + घञ् ( भावे ) / उन्माद्य उत् + V मद् + णिच् + ल्यप् / कारयन् / कृ + णिच् + शतृ / अनुवाद:-"तुम्हारे विरह की कामाग्नि ने अत्यधिक सताते हुए भी आज मुझ पर यह दया करदी है कि मुझे उन्मत्त बनाकर, मेरे द्वारा स्वयं अपने को प्रकट करवाता हुआ वह तुम पर ( मी ) दया कर बैठा // 133 // टिप्पणो-कामाग्नि की अत्यधिक पीड़ा से नल और दमयन्ती-दोनों का भला हो गया है / अत्यधिक पीड़ा न होती तो नल को उन्माद नहीं होना था / उन्माद के अभाव में उन्होंने अनजाने अपने को दमयन्ती के सामने क्यों प्रकट करना था कि मैं नल है, क्योंकि वे दूत-रूप में पक्के कर्तव्य-निष्ठ थे। ऐसी स्थिति में दमयन्ती को नल-प्राप्ति का निश्चय नहीं हो सकता था। निश्चय न हो सकने पर उसके प्राण निकल जाने थे और उसके प्राण निकलते ही नल के प्राणों ने भी निकल जाना था। अब दोनों के प्राण बच गये हैं जिसके लिये ये कामाग्नि की 'कदर्थना' के आभारी हैं। श्लोक में कवि का 'अपि' शब्द 'पावक' के साथ होने से टीकाकारों में गड़बड़ी कर बैठा है इसे नियमतः अत्यर्थतया के साथ आना चाहिए था। अतः यह अस्थानस्थपदता दोष बना रहा है / विद्याधर 'अत्रातिशयोक्त्यलङ्कारः' और चाण्डू पण्डित अनुप्रास उक्तविशेषो आक्षेपो हेतु रनुमानमतिशयोक्तिश्च' कह रहे हैं // 133 // अमी समोहैकपरास्तवामराः स्वकिकरं मामपि कर्तृमीशिषे / विचार्य कार्य सृज मा विधान्मुधा कृतानुतापस्त्वयि पाणिविग्रहम् // 134 // ___ अन्वयः-अमी अमराः तव समीहैकपराः ( सन्ति ) माम् अपि ( त्वम् ) स्व-किकरम् कर्तुम् ईशिषे; विचार्य कार्यम् सृज; कृतानुतापः त्वयि पाष्णि-विग्रहम् मुधा मा विधात् / ___टीका-अमी एते अमराः देवा इन्द्रादयः तव समोहा अभिलाषः एव एकम् केवलम् परम् प्रधानम् ( उभयत्र कर्मधा० ) येषां तथाभूताः ( ब० वी० ) सन्तीतिशेषः, देवाः केवलम् त्वामेवाभिला न्तीत्यर्थः माम् नलम् अपि त्वम् स्वम् किंकरम् दासम् ( कर्मधा० ) कतुंम् विधातुम् ईशिषे शक्नोषि, विचार्य विचारं कृत्वा कार्यम् वरणरूपम् सुज कुरु, कृते अनुष्ठिते अनुतापः पश्चात्तापः ( स० तत्पु० ) मया यत् कृतं तन्न कर्तव्यमासीत्' इत्यादिरूपः त्वयि पाणि: सेनापृष्टम्